डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा"
अपने अपने ही कर्म फल
इक दिन तो सब चखते हैं।
दूजों के हित जो गढ्ढा खोदे
खुद ही उसमें वह गिरता है।
बीतेंगे यह कठिन दिवस भी
दिन तो सबका ही फिरता है।
बोते जो पेड़ बबूल का हैं वे
कभी आम नहीं पा सकते हैं।
लूट रहे इस दुखद घड़ी में
क्या सिरपे रख ले जायेंगे।
धरा रहेगा यहीं सभी कुछ
धेला भी वे कहाँ ले पायेंगे।
अपने अपने ही कर्म फल
इक दिन तो सब चखते हैं।
सब जानबूझ करें मक्कारी
दवा तलक कुछ लूट रहे हैं ।
लगता अमृत पीकर वे आये
मृतकों को देते न छूट रहे हैं।
अपने अपने कर्मों का लेखा
इक दिन तो सब ही भरते हैं।
डाॅ सरला सिंह "स्निग्धा"
दिल्ली