कुदरत

 


किरण झा

बिखरती शाम की लालिमा 

चहचहाते परिंदों का अपने नीड़ लौटना

खुशनुमा माहौल

और......

सुरमई शाम का आना

ऐ रचनाकार....

मन को मोह लेता है

तेरा कुदरत को इस तरह सजाना


इंतजार करती निशा

सजाती चांद और सितारों से हर दिशा

बिखरी हुई दुधिया चांदनी

मद मस्त हवाओं की रागिनी

जुगनूओं की फौज का टिमटिमाना

ऐ रचनाकार...

मन को मोह लेता है

तेरा कुदरत को इस तरह सजाना


टुक टुक निहारती हूं आसमान को

तेरे बनाये इस जहान को,

शबनम नूर बनकर बरसती है

शायद ये भी कुछ कहना चाहती है

खुशियों में भी नैनों को पड़ता भींगाना

ए रचनाकार....

मन को मोह लेता है

तेरा कुदरत को इस तरह सजाना


गौर से देखो ढलती शाम  कितनी सुहानी होती है

स्याह अंधेरा पाने की उसमें इक चाहत होती है

 दिखाई देता है दूर से ही हर घरों में रोशनी,

प्रकृति भी छेड़ा करती है ,मधुर मधुर रागिनी

भूल जाया करता है इंसान

देखना और दिखाना

ऐ रचनाकार....

मन को मोह लेता है

तेरा कुदरत को इस तरह सजाना


 ✍🏻✍🏻 स्वरचित मौलिक

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