तूफां के इक झोकें ने
महेन्द्र सिंह राज
कितनी शिद्दत से पाला था, हमने खुद को संभाला था।
पर तूफाँ के इक झोकें ने , हमको जमीं पे डाला था।।
रुसवाई कर नहीं सकता ,न अपनी आदत में शामिल।
क्या पता वो ही काले थे,या अपना दिल ही काला था।।
रोटी का इक निवाला भी , अपने मुंह में जा न सका।
ना पता रोटी बेमानी की थी , या अपने मुंह में छाला था।।
प्रेम उडे़लकर प्याले में तूने ,जो दिया मुझे पीने के लिए।
अमृत समझ कर पी गया, क्या पता जहर या हाला था।।
क्या कहूं क्या ना कहूं अब,समझमें कुछ आता नहीं था।
इसलिये अपने मुंह पर मैंने,लगा लिया सब्रका ताला था।
कथनी करनीके अन्तर देखा,शब्द अलगहैं भाव अलग हैं।
मौन साधकर मैंने हम पर,आने वाली विपदा टाला था।।
सुरसरि समझ जिसमें उतरा था,मन की कलिख धोने को।
नहीं समझा पाया था वह ,सुरसरि नहीं गंदा नाला था।।
महेन्द्र सिंह राज
मैढी़ चन्दौली उ. प्र.