साधना कृष्ण
नहीं फिक्र बची अब राह की,मैं कंटकों से डरती नहीं,
गर सुख मिला अपना लिया,बाधा विघ्न भी गहती रही।
रह गयी मैं तो अनाड़ी , दे रही परिक्षाएं भारी,
वेदना अपनी किसको कहूँ,अनकही रही पीर हमारी।।
इक हौसला ही बस साथ है,नींद पर ख्वाबों का पहरा,
रतजगा करती है आँख ये, लगाव ख्वाहिशों से गहरा।
अजीब सी छा रही खुमारी,माँगे अब साँस भी उधारी,
वेदना अपनी किसको कहूँ ,अनकही रही पीर हमारी।।
भले सफल हो न हो साधना,दीपक पूजा के जला रही,
मिले या कि ना मिले मंजिलें,कदम साधती मैं बढ़ा रही।
रहूँगी ज़िन्दग़ी आभारी ,गिरा के मुझे है सँवारी,
वेदना अपनी किसको कहूँ ,अनकही रही पीर हमारी ।।