बड़ी बेबाक़ बड़े मदमस्त,
बेहतरीन खुली किताब थी,
वो मगर अफ़सोस एक,
अनपढ़ के हाँथ थी वो।
जुगनुओं से आँख मिचौली खेलती,
तितलियों से रंगों को बुनती,
दुप्पटे को अंग से लिपटा,
किसी शायर का ख्वाब थी वो,
मगर अफ़सोस एक संगदिल के,
हाँथ थी वो बच्चों सी झूलो में,
खिलखिलाती बिन घूघरु,
छनछन सावन गिराती,
मेघों की सहेली,चाँदनी रात,
थी वो मगर अफ़सोस,
एक बेज़ार के हाँथ थी वो।
सबकी पेशानी का दर्द मिटाती,
उम्मीदों का दीया लिए,
पर्वतों पे चढ़ जाती,
गीता कुरान बाईबिल,
गुरुबाणी की खान थी वो,
मगर अफ़सोस एक,
कायर के हाँथ थी वो।
डिम्पल राकेश तिवारी
अवध यूनिवर्सिटी चौराहा
अयोध्या-उत्तर प्रदेश