भरी दोपहरी में,
जब वो नंगे पांव,
पनघट को जाती थी,
तब मेरे मन में,
इक चुभन सी होती थी,
कोसों दूर जब वो चलती थी,
मेरी धड़कने हजारों हथोड़े की,
मार सीने में करती थी,
ऐसा था मांझी तेरा प्यार।
ऊंचे चट्टानों के आगे,
लगता था बौना मैं,
हौसला गगनचुम्बी खुद का,
देख बहुत इतराता मैं,
ऐसा था मांझी तेरा प्यार,
चट्टानों को चीर कर,
राह आसान करने को ठानी,
न चुभे कांटे तेरे पांव में,
ऐ सोचकर अपना दिल रख दिया,
तेरे कदमों पर रानी,
ऐसा था मांझी तेरा प्यार।
न जाने कितनी आंधियाँ चली,
मौसम ने भी रंग बदले होंगे,
चट्टानों के गर्भ ने भी,
न जाने कितने विष उगले होंगे,
ऐसा प्यार था मांझी तेरा,
न पैसा न संगमरमर,
न मजदूर न मददगार,
ऐसा प्यार था मांझी तेरा,
ताजमहल प्रेम का प्रतीक है,
तो मांझी प्रेम का प्रतिबिंब,
ऐसा प्यार था मांझी तेरा।
लता नायर
,वरिष्ठ शिक्षिका व कवयित्री
,कुवंरपुर,लखनपुर,
सरगुजा-छतिसगढ