शाम ढलने को है ,थका मांदा सूरज अब घर जाएगा।
पर्वत से उतर,उड़ा अबीर,सागर में डुबकी लगाएगा।
दोपहरी भर अलसाई हवा,अब चुस्त होने लगी,
शरारतें दिन की सभी,अब पस्त होने लगीं।
नीड़ का अकुलाता स्वर,खींच विहगी को लाएगा,
माँ की गोद में सिर रख ,शावक सो जाएगा।
चंदा आँचल रात का,सितारों से सजाएगा,
अर्श रात का तब ,जगमग झिलमिली बन जाएगा।
मुट्ठी में खुशबू समेटे,कली लरज़-लरज़ उठेगी,
छूकर चांदनी की हथेली,वो चमक-चमक उठेगी।
भीगा-भीगा कोमल मंजर,पसर-पसर जाएगा
उजाले की आगोश में,अंधेरा कसमसाएगा।
पंखुरी के कपोलों को,ओसकण सहलाएगा,
मरकती दूूब से कोहरा,बादल बन उड़ जाएगा।
सुनहरी चमकीली किरणों का, साज ले हाथ में,
प्रभाती गाता,खिलखिलाता ,अब अरूण आएगा।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली