रिश्तों का एक समंदर 

मेरे आस पास 


मीलों दूर 


जहाँ तक नज़र जाती है 


मुझे दिखता है 


रिश्तों का एक समंदर 


शांत,सुकून पसंद 


सोचता हूँ,


आखिर कैसे आया 


मेरे इतने करीब 


जबाब खुद ही 


ढूंढ़ लेता हूँ  


कुछ विरासत में मिले थे 


कुछ बनाये थे 


कुछ खुद बन गए थे 


कुछ अब तक ना बन पाए थे 


जेहन फिर सवाल करता है 


समंदर ,,,इतना शांत 


हां,बिलकुल सही 


इसकी लहरें भूल गई हैं 


उछाल मारना 


साहिल से टकराना 


अट्टहास करना 


शायद अब इनमे 


उत्साह नहीं रहा 


वो ज़ज्बा नहीं रहा 


कोई वजह नज़र आती है 


कौन जाने 


हो सकता है 


यहाँ भी 


ग़लतफ़हमी 


हर रोज बढती अपेक्षाएं 


शिकायतों की गहमा गहमी 


टूटती सीमाएं 


रंग दिखाने लगी हो ,,,,,,,,,,


राजेश कुमार सिन्हा ,मुम्बई


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