लघुकथा --
सदानंद कवीश्वर
“पुजारी जी, बर्तन धो दिए हैं, झाड़ू लगा दूँ क्या ?” लछमी ने पूछा l
“अरे, तो मेरे सर पर क्यों चढ़ी जा रही है? कितनी बार कहा है, दूर से बात किया कर l कुछ जात पात का ध्यान है या नहीं....?”
“पर मैं तो दूर ही से.......”
“चुप रह, जबान मत लडा" उसकी बात बीच में ही काट कर पुजारी जी बोले, "दफा हो यहाँ से l क्यों मेरा धरम भ्रष्ट कर रही है? परछाई भी नहीं पड़नी चाहिये तेरी..... बुढिया हो गई पर अकल नहीं आई अभी तक......”
लछमी अपना सा मुँह लिए बेटी से बोली, “चल गौरी......”
“रुको” पुजारी जी फिर गरजे, “यह कौन है ?”
“मेरी बेटी है, पुजारी जी “
“हम्म्म......” उसे ध्यान से देखा पुजारी जी ने, 22-23 वर्ष की अत्यंत सुन्दर लड़की, गोरा रंग, बड़ी आँखें, काले बाल, पतले गुलाबी होंठ, थोड़ी खिसकी हुई चुन्नी से झाँकता उसका भरपूर यौवन, बदन पर साधारण से कपड़े पहने हुए भी वह बहुत सुंदर लग रही थी l
“इसे कुछ काम भी सिखाया है या.......?”
“हाँ, सरकार...सब कर लेती है,मुझसे भी....”
“अच्छा, अच्छा....जितना पूछा जाए उतना ही बोला कर... शाम को भेज देना इसे, मैं काम करवा लूँगा, पुजारिन अपनी माँ के यहाँ गई है, समझी..?”
“ठीक है, पुजारी जी, भेज दूंगी”
शाम को गौरी के आने पर पुजारी जी बोले, "अरे, वहाँ क्यों खडी है, आ मेरे पास बैठ”
“पर पुजारी जी मेरी जाति...”
बात काट कर वे बोले, “छोड़ न, क्या रखा है जात पात में ? ईश्वर ने सब को समान बनाया है l आ, मेरे पास आ,” और पुजारी जी उसे अपने पास बिठा कर उसका दुपट्टा हटा कर कमीज़ के हुक खोलने लगे l
अपनी छाती पर उनकी उँगलियों का स्पर्श महसूस कर गौरी बोली, “मैं दरवाज़ा बंद कर दूँ क्या ?”
“हाँ, हाँ... कर दे” अपनी प्रसन्नता छिपाते हुए पुजारी जी बोले l
गौरी तड़प कर उठी, शिवजी की मूर्ति से त्रिशूल उठाया और गुस्से से भरी साक्षात चंडी सी पुजारी जी को ओर बढ़ी, “अरे, यह क्या कर रही है... पगला गई क्या ?”
“हाँ, पगला गई हूँ, पर तेरा पागलपन आज ठीक कर दूँगी मैं “ तभी दरवाज़े पर लछमी दो पुलिसवालों को लिए अन्दर आई, “तेरी मंशा तो मैं तभी समझ गई थी, राक्षस...... पर तू आगे से कभी यह मत भूलना कि राक्षसों का संहार करने के लिए गौरी ने ही चंडी का रूप धारण किया था........”
-सदानंद कवीश्वर