हे रघुपति राघव राजा राम !
हे पतित पावन सीता राम!
आज बहुत दुखी हूँ मैं
आज बहुत विकल हूँ मैं
मेरी पीड़ा दूर करो!
कुछ तो ऐसा करो।
सत्य जो नित्य ठोकरें खा रहा
असत्य के बोझ से दबा जा रहा,
अन्याय दिन पर दिन बढ़ता जा रहा
तुम न्याय का पथ आलोकित करो
कुछ तो ऐसा करो।
मैंने भी तीन बंदर छोड़े थे
आँख, कान और मुँह ढँके हुए
वे बंदर तो आज भी हैं
पर असत्य की जगह
सत्य ने ले लिया है।
सत्य नहीं देखना
सत्य नहीं सुनना
और सत्य नहीं बोलना।
आज का यही धर्म बन गया है।
सरे राह छेड़ी जातीं लड़कियाँ
सरे आम मसली जातीं हैं कलियाँ
गर्भ में ही दबा दी जातीं किलकारियाँ
पर ये तीनों बंदर!
पर ये तीनों बंदर अपने कार्य
अब भी बखूबी करते हैं
अपने कान, आँख और मुँह को
कसकर बंद रखते हैं।
हे मर्यादा पुरुषोत्तम राम!
यह क्या किया मैंने?
इन बंदरों के रूप में
शायद एक गुनाह किया मैंने
मुझे नहीं था जरा भी भान इसका
अर्थ ही बदल जाएगा जिसका
मेरी नासमझी को माफ करो
वसुंधरा को रसातल में जाने से
रोकने का कोई उपाय करो
कुछ तो ऐसा करो
कुछ तो ऐसा करो ।।
©️®️
— गीता चौबे गूँज
02/10/2020