प्रकृति का ऋतुचक्र, निर्झर का निनाद, पंछियों का कलरव जब लयबद्ध है, पावस की रिमझिम, सरिताओं का बहाव, उदधि का ज्वार जब लयबद्ध है, धरती की सुगंध, बीज का अंकुरण, बालियों का लहलहाना जब लयबद्ध है, तब सृजन का शब्द-शब्द भी लय की अपेक्षा रखता है। और जब इस लयबद्धता का साथ भाषागत लालित्य और अन्त्यानुप्रास दे, तब वह हृदयग्राही हो जाती है। इस लयबद्धता ने ही डाॅ. बिपिन की कृति ‘अनुबंधों की नाव’ को जन्मा है। यह गीतिका काव्य संग्रह होकर कुल 91 गीतिकाओं को समेटे हुए है। छंद-विधान के निष्णात, व्याकरणाचार्य श्री ओम नीरव (संस्थापक अध्यक्ष, अखिल भारतीय कवितालोक सृजन संस्थान, लखनऊ) ने इन गीतिकाओं पर अपनी भास्कर दृष्टि डाली है।
भाव, भाषा, शिल्प और कहन की अनोखी कला से ये युग्म, या काव्य की दो-दो पंक्तियाँ मनमुग्धकारी प्रभाव निष्पादित करती हैं।
वस्तुतः गीतिका, हिंदी भाषा के व्याकरण-शिल्प से पल्लवित एक विशिष्ट काव्य-विधा है। गीतिका में हिंदी छंद पर आधारित लयात्मक दो-दो पंक्तियों के युग्म, जो पाँच या उससे अधिक पूर्वापर निरपेक्ष होते हुए, विशेष कहन के साथ प्रथम दो पंक्तियों के मुखड़े और उसके बाद एक अतुकांत पंक्ति के साथ दूसरी समतुकांत पंक्ति होती है। यादि गीतिका के घटकों की बात की जाए, तो इसमें व्याकरण, आधार-छंद, विशिष्ट कहन, मुखड़ा, युग्म और तुकांतता। ये छः घटक गीतिका को उर्दू ग़ज़ल से भिन्न बनाते हैं। ये गीतिकाएँ मात्रिक और वार्णिक दोनों हो सकती हैं। इनमें परिनिष्ठित और विस्तारित हिंदी सहित उर्दू के प्रचलित कुछेक शब्द गाह्य हैं। ये गीतिकाएँ गणनायुक्त और गणनामुक्त दोनों होती हैं। डाॅ. पाण्डेय ने हिंदी के सनातनी 36 छंदों को आधार-छंद मानकर गीतिकाओं का प्रणयन किया है। हिंदी काव्य-जगत के शोधार्थियों के लिए यह कृति विशिष्ट महत्त्व रखती है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इसी तरह का विशेष योगदान व्याकरणाचार्य, हिंदी-उर्दू-संस्कृत के विद्वान, गुरुवर डाॅ. ब्रह्मजीत गौतम सा. ने किया है। 2016 में प्रकाशित उनकी कृति ‘एक बह्र पर एक ग़ज़ल’ है, जिसमें उन्होंने पैंसठ बह्रों को हिंदी के विभिन्न छंदों को आधार बनाकर शोधपूर्ण कार्य किया है, जिसे हिंदी जगत में यश प्राप्त हुआ है।
डाॅ. पाण्डेय की गीतिकाओं में वक्रोक्ति या धारदार कहन के दर्शन होते हैं। उनकी अभिव्यक्ति विस्फोटक है। इन गीतिकाओं में सामाजिक जीवन के विभिन्न चित्र खींचे गए हैं, जो हर सहृदय व्यक्ति को प्रभावित करते हैं, ये गीतिकाएँ पढ़ या सुनकर वाह वाह कहने को विवश कर देती हैं। जैसे:-
सत्य है हीरा चमकता है बहुत,
पर निकलता कोयले की खान से।
अभिव्यक्ति को शब्दायित कर कहन की विलक्षण प्रतिभा से डाॅ. पाण्डेय ने गीतिकाओं को स्वर दिया है। एक ही विषय पर धारावाहिक की तरह बाँधना कोई उनसे सीखे। यथा:--
देखकर उनको लजाते रह गए हम।
प्यार से अपना बनाते रह गए हम।
पी गए पूरा उदधि वे बिन डकारे।
बस सरोवर को बचाते रह गए हम।
थी यही इच्छा प्रकाशित जग करेंगे।
जुगनुओं से टिमटिमाते रह गए हम।
कामना थी बैठकर बातें करेंगे।
याद में आँसू बहाते रह गए हम।
सारांश में यह कि छंदबद्ध काव्य के समर्थ गीतिकाकार डाॅ. पाण्डेय की यह कृति न केवल विधा का सम्वर्धन करेगी, अपितु पाठकों और श्रोताओं को भी रसानंद से अभिभूत करती रहेगी। कृतिकार को अभीष्ट प्राप्त हो इन्हीं स्वस्तिकामनाओं के साथ। इत्यलम्।
समीक्षक-
प्रभु त्रिवेदी.
इंदौर ,मध्यप्रदेश