आखिर कब तक पीड़ा के दंश सहेगी,
आखिर कब तक धीरज कर मौन धरेगी,
कब भारत की कानून व्यवस्था सुधरेगी,
कैसे मानूँ की देश सुरक्षित हाथों में है,
कब शाम ढले घर के बाहर निकल सकेगी,
निर्भय होकर किसी क्षेत्र मे कार्य करेगी,
कब तक समाज आँखों में पट्टी बाँधेगा,
दुर्योधन करता जाएगा नित चीरहरण,
जो नारी पे अत्याचार करे इन नामर्दों को,
कब तक समाज यूँ खुला विचरने देगा,
कब तक समाज ऐसा वहशीपन झेलेगा,
औरत के छोटे कपड़े तो सबको दिखते,
मर्दों की ओछी मानसिकता क्यों न बदलें,
संयम किसी पिता ने नही सिखाया बेटों को,
बस बेटी को नजर झुका चलना सिखलाया,
क्यूँ पुरुषों के मन में नारी का सम्मान नहीं,
अपनी पत्नि को छोड़ ध्यान क्यों लगे कहीं,
क्यों लोगों के मन में इतनी पशुता है भरी हुई,
क्या अंतर है उन कुत्तों के झुंड और इंसानों में,
जो किसी माँस के टुकड़े के खातिर झपट रहे,
पशुओं की तो फिर भी भूख एक मजबूरी है,
पर इंसान भला क्यूँ नन्हीं कलियाँ कुचल रहा,
जब हर चीज खुली बिकती है अब बाजारों में,
क्यों ये वहाँ नहीं पूरे करते अपने अरमानों को,
क्यूँ मासूम परियों से उनका बचपन छीन रहे,
कब तक भारत के ध्वज में होंगे खून के छींटे,
आखिर कब तक निर्भयाकाण्ड दुहराया जाएगा,
राजनीति के दाँव पेंच हों या हो कोई जाति विवाद,
नारी की अस्मत को ही हथियार बनाया जाएगा,
जो आज मोमबत्तियाँ जला रहे हैं किसी चौराहे में,
उनमें से कोई कल फिर ये हैवानियत दुहरायेगा,
आखिर कब तक इक माँ डर के बेटी को जन्मेगी,
आखिर कब तक ऐसे बेटों की माँ शर्मशार होंगी।
नीलम द्विवेदी
रायपुर , छत्तीसगढ़