सुनीता जायसवाल
आज फिर रोज की तरह विवश हो गयी हूं ,समाज में हो रही अपराधिक घटनाओं के बारे में सोचने पर! क्या करूं मन का आक्रोश किस से सांझा करूं, क्योंकि यहां सभी धृतराष्ट्र हैं और जो नहीं है वह धृतराष्ट्र बने रहने को विवश हैं ,क्योंकि सत्य बोलने का हश्र हम सभी देख रहे है!
यह आज कल की घटना नहीं है ,यह तो और पहले से है ,परंतु क्या इसके पीछे हमारा हाथ नहीं है ?हमारा धृतराष्ट्र बने रहना नहीं है ?अपराध की बेलें राजनीतिक ,रसूखदारो,
माफियाओं के संरक्षण की दीवार के सहारे बढ़ती जा रही है, चढ़ती जा रही है और यह बढ़ती रहेंगी ,चढ़ती रहेंगी, फलती फूलती रहेंगीं !इनकी जड़ें काटना जरूरी है! जिस दीवार के सहारे, ये ऊपर की ओर चढ़ती जा रही है उस ,दीवार को ढहाना होगा और यह तब तक नहीं होगा जब तक हम अपनी आंखों की पट्टी नहीं उतारेंगे! हम कानों से सुनते हैं किस बलात्कारी का हवस में डूबा अट्ठाहस और पीड़िता की तार-तार होती अस्मत की चीख ,मगर हम क्या करते हैं? हम अपने घरों के दरवाजों को बंद करके, लाइटें बुझा कर ,चुपचाप सो जाते हैं, इस सोच के साथ कि ,मैं क्यों बोलूं? मेरी बेटी के साथ तो यह नहीं हो रहा है ?तो क्यों आवाज उठाकर शत्रुता मोल लूँ? अरे निरा मूर्खों कभी सोचा है? बलात्कारी की सोच सिर्फ औरतों के तन तक सीमित होती है !आज वहाँ किसी और की बेटी की अस्मत गुहार लगा रही है ,कल तुम्हारी बेटी की लगाएगी और ऐसे ही आसपास के लोग अपने घरों में बंद हो जाएंगे, फिर क्या करोगे ?किसे पुकारोगे ?उठो और उठाओ आवाज!
फाइलों में न जाने कितने गरीबों की "हाय "दबकर रह जाती है ,क्योंकि, उन फाइलों पर लगने वाली मुहर बिक चुकी होती है !कभी टेबल के नीचे से, तो कभी मिठाई के डब्बे में, तो कभी महंगे तोहफे से !हमें यह सारी व्यवस्था बदलनी होगी यह आतंक का नंगा नाच रोकना होगा !हम सवा सौ करोड़ हैं !फिर से सुनो, "सवा सौ करोड़"! उनका आतंक सिर्फ मुट्ठी भर ही है, परंतु हमारी सोच हमारे डर ने उनको बाहुबली बना दिया है !सत्ता के गलियारे में पहुंचते ही जैसे मानो, भगवान बन बैठते हैं !यह भूल जाते हैं कि उन्हें उस सत्ता के उस तख्त तक तक पहुंचाने वाली यह जनता ही है, वरना उनका कोई अस्तित्व नहीं है कोई वजूद नहीं है !
सत्ता के नशे में ऐसे चूर होते हैं कि उन्हें फर्श से अर्श तक पहुंचाने वाली जनता ही कीड़ा मकोड़ा लगती है जिसे वह जब चाहे कुचल सकते हैं! हमें व्यवस्था सुधारनी है वह खुद सुधर जाएंगे !एक कमजोर इंसान न्याय पाने की उम्मीद में न्याय के मंदिर के चक्कर काटता रहता है ,परिक्रमा करता रहता है कि,कभी उस न्याय की मूर्ति की कलम उसके हक में फैसला दे !परंतु परिक्रमा करते करते वह अपने बेटों के कंधों पर चढ़कर अंतिम यात्रा पर भी निकल चुका होता हैं ,और उसकी जगह उसका परिवार उस न्याय के मंदिर की परिक्रमा करना आरंभ कर देता है! इतना विलंब क्यों एक पीढ़ी ही समाप्त हो जाए ?
क्यों है ऐसी व्यवस्था ?
करोड़ों भारतीय पर्याप्त नहीं है इस व्यवस्था को बदलने के लिए ?और हाँ, सबसे महत्वपूर्ण बात ,इन सबसे ऊपर और सर्वप्रथम जो चीज बदलने लायक है वह हमारी आपकी सोच है! जिस दिन सोंच ने प्रण ले लिया यकीन मानिए ,व्यवस्था बदलने का शपथ पत्र हर इंसान के हाथ में होगा और, सत्यपथ पथ आर्यव्रत का स्वपन पूर्ण हो जाएगा !
जय हो !