आज वो फिर हवा के झोंके जैसे
बलखाए से थे
आंखों में समंदर की गहराई
होंठों पर आग की तपिश
हजारों सवाल लिए मुझ पर
कहर ढाए से थे
सोचने लगा था मैं
मजबूरियां अपनी गिना दूंगा
उनके लिए एक - आद
प्रेम गीत गुनगुना दूंगा
पर करता भी क्या...
उनकी निगरानी में हम
पहले ही अपना सर झुकाए से थे
कहने लगे मुझसे, तुम्हें कुछ होश नही
झूठे हो, नकारा हो, तुम्हीं हो
ओर किसी का दोष नही
सच कह दें अगर हम तो कोई समझे
वजह वो ही थे हम जो होश गंवाए से थे
वो क्या समझे बारिश ही
बहार लाती है
लहरों की मार ही
कश्ती पार लाती है
और फिर अपने दामन में
कुछ यूं मुझे ढका उन्होंने
कि उनके दामन में हम शर्माए से थे
कवि स्वामी दास '