हे प्रभु विश्वकर्मा!
हे जगत शिल्पी!
करूँ अर्चना तुम्हारी
अब सुनो विनती हमारी
अनोखा शिल्प रचते हो
अद्भुत ज्ञान रखते हो
टूटते ही जा रहे हैं
इस जगत के घर-घरौंदे
नफरतें, ईर्ष्या कपट
नींव में ही भर रही हैं
दरक गयी जब नींव ही तो
इमारतें भी हिल रही हैं।
अब एक घर ऐसा बनाओ
जो कभी टूटे नहीं
आँधियाँ छल की चलें तो
दीवार ये दरके नहीं
आपसी विश्वास से भर
घर की ये छत महफूज हो
प्रेम से हल खोजने की
हर किसी को सूझ हो
एक ऐसा घर बनाओ
सीता जहाँ निश्चिंत हो
खौफ से किसी असुर के
मन में न डर किंचित हो।
तब तुम्हारा दिवस हम
दिल से मनाएँगे यहाँ
टूटेगा कोई घर नही
होगा प्रफुल्लित सारा जहां।
©️®️
गीता चौबे गूँज
राँची झारखंड