प्राचीन बौद्ध स्थल अभी तक है उपेक्षित   

 रमेश कुमार मद्धेशिया


         धर्मसिंहवा संत कबीर नगर का ऐतिहासिक स्थल के रूप में विख्यात बौद्ध स्तूप ( गरगज ) उपेक्षित होने के कारण उसका अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है जो आज पर्यटक स्थल बनाने की कवायद चल रही है यह कार्य दो दशक पूर्व शासन स्तर से संरक्षित करने की कोशिश की गई होती तो आज बौद्ध स्तूप पूरा सुरक्षित होता ऐसा कई बार देखा गया है कि पुरातत्व विभाग यहां तमाम बौद्ध स्तूप-पोखरे के आस पास व बैल द्वारा हल से खेत की जुताई करने दौरान बहुत सारे अवशेष मिले हैं, विखरे हुए अवशेषों को प्राप्त करने के लिए मौके पर कई बार पुरातत्व विभाग पूरी टीम के साथ जांच पड़ताल करके गया है। ऐसा नहीं है कि बौद्ध स्तूप को संरक्षित करने के लिए स्थानिय स्तर पर प्रयास नहीं किया गया लेकिन राजनीतिक जन प्रतिनिधियों द्वारा उपेक्षित बौद्ध स्तूप का ऊपरी हिस्सा दिनांक 28-09-2019 को समय 1:30के आस पास टूट कर गिर गया।यह सुनकर देखकर हृदय को को बहुत बड़ी चोट पहुंची है यह कहना है पूर्व जिला पंचायत सदस्य मास्टर अजीजुल्लाह खान छिबरा का उन्होंने ने बताया कि स्तूप को संरक्षित करने के लिए कई बार प्रयास या गया


 


छिबरा ग्राम पंचायत निवासी निस्वार्थ समाज सेवा भाव समर्पित बसपा नेता स्वर्गीय रामनयन राव द्वारा लेख 23दिसम्बर 2009आज भी सुरक्षित है जो अग्रलिखित है


"वर्तमान में सिद्धार्थ नगर और संतकबीर नगर जनपदों की सीमा पर स्थिति एक छोटा सा कस्बा है धर्मसिंहवा जिसकी कुल आबादी चार हजार के आस-पास होगी. प्रशासनिक दृष्टि से इसे ब्लाक स्तर का भी दर्जा प्राप्त नहीं है किंतु शाक्य काल में यह बौद्ध कालीन फलता-फूलता कस्बा था.राजकुमार सिद्धार्थ के पिता की राजधानी जिस समय कपिलवस्तु थी, उस समय शाक्य गणराज्य के महत्वपूर्ण नगरों में 10 कि.मी. की दूरी पर स्थिति मेतुलप्प( वर्तमान मेंहदावल) विशेष स्थान रखता था.उस समय अचिरावती(वर्तमान राप्ती) निकट से बहा करती थी. छिबरा का रैना ताल इस बात का आज भी साक्षी है.राप्ती की धारा अपना चिह्न छोड़कर अब उत्तर की ओर बहने लगी है.बौद्ध काल में यह धम्म संघ नाम से पुकारा जाता था.पुरातत्विदों के अनुसार लगभगा ्ढाई हजार वर्ष पूर्व यह कस्बा एक सम्पन्न आध्यात्मिक एवं कला का केंद्र था.बौद्ध सभ्यता एवं संस्कृति से समृद्ध यह नगर सभी सुख-सुविधाओं से भरपूर व्यापार,संस्कृति आदि प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी था.


बुद्धत्व प्राप्त करने के पश्चात तथागत ने इस स्थल का चयन कर यहां बौद्ध केंद्र स्थापित किया था. इस स्थान का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि राजकुमार सिद्धार्थ ने इसी रास्ते से गृह त्याग कर बुद्धत्व प्राप्त करने निकले थे. ऐसा माना जाता है कि राजकुमार सिद्धार्थ अपने घोड़े कंतक और सार्थवाह चन्ह के साथ कपिलवस्तु के पूर्वी द्वार से निकलकर शाक्य गणराज्य के अंतिम नगर अनुप्रिया की ओर गये तब वे धम्म संघ से होकर गुजरे थे क्योंकि कपिलवस्तु की इस रास्ते से अनुप्रिया की दूरी उतनी ही बैठती है जितनी दूरी का उल्लेख चीनी यात्रियों ने अपने यात्रा विवरण में किया है. पूर्व में इसका नाम धम्म संघ था किंतु बौद्ध धर्म के ह्रास के साथ ही यह धर्मसिंहवा नाम से पुकारा जाने लगा. विश्वविख्यात पुरातत्वेत्ता डॉ. बी.आर.मणि के अनुसार ‘धर्मसिंहवा’ अशोक के धर्म चक्र से संबंधित है. यहां से 20 कि.मी.पश्चिमोत्तर मेम महादेवा से प्राप्त अशोक की सिंह वाली लाट(स्तंभ) जो आज उत्तर प्रदेश लखनऊ संग्रहालय में संरक्षित है, यहीं से ले जाई गई थी.धम्म सम्घ(धर्मसिंहवा) में आज भी भौद्धकालीन संस्कृतियों के अनेक चिह्न पग-पग पर मिलते हैं.यहां कई एकड़ क्षेत्र में फैला एक गहरा तालाब है जिसका पानी कभी नहीं सूखता, इसी के तट पर एक स्तूप और स्तंभ है.संभवतः बौध बिक्षु इसी तालाब में स्नान कर ध्यान साधना करते रहे होंगे.


तालाब के दक्षिण- पूर्व में लगभग दो कि.मी. के दायरे में खुला मैदान है जिसमें कुछ कृषि भूमि के रूप मे इस्तेमाल की जाती है और कुछ भाग में मदरसा कायम है.इस भूमि में मिल रही प्राचीन वस्तुओं को देखकर सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है कि इस धरती के नीचे बौद्धकालीन इतिहास दबा पडा है. आवश्यकता है किसी ऐसे महान खो जी की जो उन्हें धरती से निकालकर संसार के सामने रख दे."


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