समस्याओं का दौर है, घिरा हुआ इंसान।
काट रहा दुख बेड़ियाँ, छीनी हाथ कृपाण।
जस काटे कदली बढ़े, वैसे बढ़ता रोग-
दुवा दवा अपनी जगह, मंदिर मह भगवान।।
पर्वत सी पथ पीर है, कोमल मन की चाह।
कंकड़ पत्थर से भरी, है जीवन की राह।
डगर सुगम करना कठिन, बिनु पानी कब धान-
उम्मीदों का सूखना, नैन वैन मुख आह।।
जोड़ तोड़ कर चल रही, प्रतिपल जीवन नाव।
कड़वी पर शीतल करे, नीम गांछ की छाँव।
बैठ किनारे पर कभी, देखों खग की प्यास-
जल में उलझी मीन है, मजा ले रहा गाँव।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी