विक्षिप्त हो रहा मन देख,
देश को यूं मौन खड़ा,
खेतों को सींच रही है,
किसानों की रक्त धारा।
सुना है, कल रात रो गया,
डाल गले में फंदा सो गया,
करता भी क्या बेचारा,
ज़िन्दगी से हारा- हारा।
बीबी की कंगन गिरवी रख,
बिटिया की सगाई की,
महाजन से पैसे ले,
उसकी विदाई की।
वक्त चाल चलता रहा,
बदनसीबी की आग में घर जलता रहा,
बूढ़ी मां बिन कफन सोती रही,
पत्नी फटी साड़ी में खुद को ढोती रही,
बोझ जिन्दगी का वो ढोता रहा,
हर पल किसान रोता रहा।
आंखों में आंसुओ की बूंदें ले,
आखिर में वो चुप हो गया,
बना फंदे को वरमाला,
वह चुपचाप सो गया।
सुना है, शिराओं में रक्त नहीं ,
पानी की बूंदें थी,
हां, ये सच है,
खेतों में पानी नहीं,
रक्त की धारा बह रही थी।।।
- ऋचा