"कल "के इंतजार में
हम "आज "को
खोते जा रहे हैं
"कल "
बैठ जाएंगे ,
मां-बाप के पास ,
"कल"
थोड़ा घूम आएंगे ,
दोस्तों के साथ ,
"कल "
सुन लेंगे ,
अपनों की व्यथा कथा,
" कल "
मिल आयेंगे,
गांव वाली बुआ से,
"कल "
कर लेंगे फोन ,
पुराने मित्र को ,
"कल "
ठहाके लगाएंगे ,
परिवार के साथ,
परंतु
सुबह होते ही,
"कल "बदल जाता है ,
एक बार फिर कल मे,
क्योंकि ,
हम आज
टचस्क्रीन लेकर ,
घुस जाते हैं कोनों में ,
और
टूटे स्वप्न सा "कल "
कोने में जा गिरा होता है!
स्वरचित मौलिक रचना सुनीता जायसवाल फैजाबाद उत्तर प्रदेश