देखा पहने हर नज़र को इक लबादा झूठ का।
झूठ सच को कर रहा था इक पियादा झूठ का।।
आँखों में बुन खूबसूरत जाल जो उलझाता है।
लग रहा दिलक़श नज़ारा हद से ज़्यादा झूठ का।।
हैं पहन रक्खे मुखौटे राम के कहीं कृष्ण के।
है ज़बां पे सादगी ना काम सादा झूठ का।।
इक ज़रा खिड़की खुली चेहरा दिखा है सामने।
लूटने को हर दफ़ा जो था आ'मादा झूठ का।।
इक कहानी झूठ की लिक्खी गई थी इस तरह ।
ताई'द-ए-सच का बे'मतलब था तकादा झूठ का।।
देर से ही हो सही पर देखना तुम एक दिन।
झूठ बन रह जाएगा हर इक इरादा झूठ का।।
तेग-ए-सच्चाई का इक दिन वार होगा ही 'सु'मन'।
तख़्त से नीचे गिरेगा शाहज़ादा झूठ का।।
**सुमन मिश्रा**