भूपेन्द्र दीक्षित
आजकल अखबारों में अवधी पंच छप रहे हैं,जिनका न अवधी से कोई लेना-देना है और न अवध से।
इनको पढ़कर एक कविता याद आई-
पाँच साल पुराने समाचार को
कविता की साड़ी पहनाकर
मंच पर नचाते रहे
दंगा शांत हो गया
मगर शोर मचाते रहे!
कविता को जहर देकर
चुटकुलों को दूध पिलाते रहे
और दिल्ली की तुक,
बिल्ली से मिलाते रहे।
शब्द की देवी का अपमान एक बार हुआ
तुम बार-बार करते रहे
कविता खत्म होने के बाद
तालियों का इंतजार करते रहे।(शैल चतुर्वेदी)
आजकल हर अखबार में अवधी का नाम लेकर कविताएं छप रही हैं ,शेयर हो रही हैं और भाई लोग प्रसन्न हैं और नेता लोगों को भी यही पसंद है। इस प्रसन्नता में आम जनता कहीं शामिल नहीं और न शामिल होने की संभावना है। जिनको कुछ मिलने की उम्मीद है , वे दीवाने हुए जा रहे हैं ,नेताओं से टुकडे पाकर।
जैसे कुत्ता हड्डी पर लपकता है, ऐसे ही कुछ तथाकथित कविता के ठेकेदार उनके पीछे पीछे बड़ी बेहयाई से घूम रहे हैं और मैं सोच रहा हूं कि शायद वे तालियों का इंतजार कर रहे हैं।अवधी की दशा देखकर एक गाना याद आता है-देखो ए दीवानों तुम ये काम न करो।राम का नाम (अवधी का नाम) बदनाम न करो।