लघुकथा
रविवार का दिन है ,जरा आराम करने का मन है ।मैं आराम से लेटा हूं
मधु बिस्तर समेटने में लगी है पर जुबान चल ही रही है ।
'सुन रहे हो आज कितनी तारीख है याद है "
''क्यों?"
"तारीख से तुम्हें क्या प्राबलम है?
हमेशा भुनभुन भुन भुन करती रहती हो ?"
मेरा उत्तर सुनते ही लगभग तिलमिलाकर मधु ने कहा --" तुम्हारी मां को कहो ,अब जायें ,रवि के घर ।"
मन तो किया तड़ से एक झापड़ जड दूं और कहूं "मां कहीं नहीं जायेगी ,जो करना है कर ले ।"
पर सोचा सारा गुस्सा फिर मेरे पांच वर्षीय बेटे को पीट -पीट कर उतारेगी ।औरतों में एक बुरी आदत होती है कि घर में किसी पर भी गुस्सा आये न कह सकने की हालत में बच्चों को पीटेंगी ।बेचारे बच्चे न हुये बाक्सरों के पंचिंग सेंड बैक हो गये ।
हम चार भाइयों को पिताजी ने एक साधारण सी नौकरी करते हुये अपनी औकात से ऊपर जाकर पढाया,हम तीन भाई सरकारी नौकरी में हैं एक ही शहर में पर अलग अलग जगह ।
केवल सबसे छोटा राहुल आईआई टी से निकलकर सीधे न्यूयार्क में पहुंच गया ,मेधावी था ।
पिताजी ने एक गलती कर दी ,रहने के लिये मकान नहीं बनवाया ,वरना मां को हर महीने भटकना न पड़ता ।पिताजी के गुजरते समय पिताजी ने मेरा हाथ पकड कर कहा था "बेटा माँ का ध्यान रखना " यही बात मेरे कान में हमेशा प्रतिध्वनित होते रहती है ।मन नहीं मानता माँ को छोड़ने को पर असहाय हूं ।
सब भाइयों की पत्नियों का कहना है कि मां को राहुल के पास ही रहना चाहिये आखिर सबसे अधिक खर्च तो उसके लिये ही किया गया है ।
अब मूर्खों को कौन समझाये कि मां यदि जायेगी भी तो छः महीने ही मुश्किल से रह पायेगी ।
आलस छोड़ नहीं रहा रविवार तो है मां को रवि के घर शाम को छोड आऊंगा ।
यही सोच रहा था कि मोनू दौड़ते हुये आया -"पापा जल्दी उठो देखो दादी कहां जा रही है ?"
मैं हड़बड़ा कर उठा देखा मां अपना बैग वैग पैक करके तैयार खडी हैं ।मैं बोला-" मां अभी तो आठ भी नहीं बजे इतनी जल्दी क्या है ?"।
"मैं खुद आपको रवि के घर शाम को पहुंचा देता ।"
मां ने कहा -"नहीं बेटा रवि के घर आज कैसे जा सकती हूं आज तो इकतीस तारीख है ।
तू टैक्सी बुला दे यहां से बाई पास तक, एक दिन अपने भतीजे के पास रह आती हूं बहुत दिनों से भतीजा बुला रहा है ।"
मैं निस्तब्ध हाय रे भाग्य ...।
सुधा मिश्रा द्विवेदी
कोलकाता
यह मेरी मौलिक रचना ,सर्वाधिकार सुरक्षित