साहित्यिक  पंडानामा :७९३

 



साहित्यिक  पंडानामा  से कुछ लोग प्रसन्न हैं, कुछ निरपेक्ष हैं और कुछ बेतरह तिलमिला रहे हैं  और उनकी तिलमिलाहट कई तरह से सामने आ रही है।मित्रों! न मेरा किसी से राग है और न द्वेष ।मैं  तो साहित्य  की बेहतरी  के लिए  और साहित्यिक  प्रतिभाओं  के समुचित  विकास और प्रोत्साहन  के लिए  लिखता हूँ ।
कहते हैं  जब व्यवस्था  बिगड़ जाती है तो प्रकृति  स्वयं  उसकी व्यवस्था  करती है।यही हाल साहित्य  का है।अनादिकाल  से प्रवृतियां बदलती रहीं ।वीरगाथा काल से नई कविता  तक परिवर्तन  होते रहे हैं ।
साहित्य  तो समाज का दर्पण  है,दर्शन  है।जब समाज बेपटरी है ,तो साहित्य  कहां  बच सकता  है।धंधे नये,कंधे नये,बंदे नये।कुछ  संस्थाध्यक्ष प्रकाशक बने  बैठे  हैं ।मूर्ख  लोगों  को फंसा  कर मोटी  रकम  लेकर  किताबें  छापने का धंधा   करते हैं ।
नये साहित्यकारों  के सबसे बडे शोषक यही हैं ।कुछ तो  लोकार्पण  से लेकर  सम्मान  और पुरस्कार  तक का   ठेका  लेते रहे हैं  ,पर  साहित्यिक पंडानामा अपनी तरह का एक ही मिशन है। यहां  हर ठेकेदारी  फेल है। संत तुलसी ने लिखा था-
तुलसी मेरे राम को, रीझि भजौ चाहे खीझ।
भौम परे  पर       जामिहैं , उलटे टेढ़े बीज।।


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