साहित्यिक पंडानामा:७९२


 


भूपेन्द्र दीक्षित
 ओजस्वी कवि भाई प्रदीप तिवारी जी की काव्यकृति " मौन नहीं रह पाऊंगा " प्राप्त हुई। तिवारी जी एक अध्ययनशील, सहज,  सरल और स्वाभाविक कवि  हैं। उनका यह संकलन पलायनवाद ,बाजारवाद ,पर्यावरण, प्रदूषण ,बेरोजगारी और जनसंख्या की विकट समस्या से जूझते हुए समाज के मार्मिक पहलुओं पर आधारित है।
 जनता की पीड़ा कवि की आत्मा में झलकती  है।
इस संग्रह की रचनाएं ना सिर्फ सर्वहारा ,वंचित और पीड़ित मनुष्य की समस्याएं न सिर्फ  सामने लाती हैं, बल्कि उसका सार्थक समाधान भी प्रस्तुत करती हैं।
 उनका हस्त लेख जितना सुंदर है ,उतनी ही सुंदर और सुरुचि कविताएं  हैं।
इस संग्रह में सुसाइड नोट , चिट्टियां ,कोटा का विलाप,खपरैल,स्वच्छ भारत मिशन जैसी सार्थक कविताएं  राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की उन पक्तियों को सार्थक करती हैं ,जिसमें उन्होंने लिखा था-
 केवल मनोरंजन  न कवि का कर्म होना चाहिए।
 उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना   चाहिए।।


धवल जी की की तमाम कविताएं कस्बाई संस्कृति से लेकर गांव की दुनिया तक रमी हैं ।उनमें  एक मिठास और उजास है। एक संवेदनशील कवि  वहां तक पहुंचा है, जहां हर व्यक्ति नहीं पहुंच पाता-
 हे कोटा की आत्महत्याओं!
सुनो मैं ही तुम्हारा गुनहगार हूं
क्योंकि मैं भी पिता हूं और
परकाया प्रवेश की
मानसिकता का शिकार हूं।


चिट्टियां कविता में देखिए-
चिट्ठियों के साथ जाती थी
गांव की माटी, सौरी की  महक
 बच्चे की उबटन, बूढी की खांसी
कजरौटा,हरी-भरी मांग का नितांत एकाकीपन
डीह,काली माई,अधनंगा बचपन,
अब चिट्ठियां नहीं आतीं
नहीं लातीं अपने साथ
लाली ,महावीर, नेलपॉलिश
की छुअन
कुछ पिरा उठता है पाठक के मन में यह पढ़कर।अपनी कविता में धवल जी ने जनसाधारण के रोजमर्रा की जिंदगी से संबंधित विषय चुनें हैं।वे आम आदमी के कवि हैं।यही उनकी खूबी भी है और खूबसूरती भी।
गौरैया पर लिखते लिखते कवि कहां पहुंच जाता है-
अनायास गुम होती 
जा रही है गौरैया।
मानिंद ऐसे कि गुम
हो रही हों हमारी
लोक संस्कृति, लोककला
 और लोक मान्यताएं।
शहरों की शोचनीय स्थिति पर कवि ने लिखा है-
लूट, स्त्रियां,अपहरण अब हमारे शहर   में।
मुस्कराहट दब चुकी है,आदमी के कहर में।
इसके साथ अनेक समसामयिक विषयों को उठाया गया है।
कवि की भाषा सहज-सरल और अपने भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने में पूर्ण समर्थ है।
इस संग्रह के लिए मैं उन्हें बधाई देता हूं और कामना करता हूं ऐसे अनेक संग्रह वह हिंदी साहित्य को दें।
अनामिका प्रकाशन , प्रयागराज से छपे इस संग्रह का मूल्य दो सौ पचास रुपए है। मुखपृष्ठ आकर्षक है ।


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