प्रकृति पर दोहे

 



1))
मदमाती शुचि पावनी,धरी रूप विकराल
विध्वंसक के वेश में, जगत  हुआ बेहाल।
2))
प्यास बुझाती जगत कि, मां गंगा की धार।
खुद घुट घुट कर जी रही,करे जगत उद्धार।
3))
प्राकृतिक वरदान तो अनुपम है उपहर
जीवन में खुशियां भरे, स्वर्ग बने संसार।
4)))
हरियाली को देख कर कट जाता संताप 
नेह प्रकृति से जोड़िए, कटित होत सब पाप।
5)))
इठलाती अवनी चली, ओढ़ चूनर हर्षाए।
कर्म करो बढ़ते चलो,नवल सवेरा आय।


* मणि बेन द्विवेदी
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)


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