कजरी


पूर्वांचल की कठिन कजरी रागों में एक इस राग को लेकर शायद इस सावन की यह पहली कोशिश है ,शब्दों में अवध ,बिरज होते हुये पूर्वांचल तक की थाप है महसूसियेगा।


अरे रामा उतरे असाढ़ रहनिया
सवनी भई दुलहिनिया ना
सजी दुलहिनिया , भयी रे जोगिनिया
जोगिया खातिर सजनिया ना 
अरे रामा उतरे असाढ़ रहनिया
सवनी भई दुलहिनिया ना...........


कत कोई गोकुला में छाछ न जोहे
जोहे बजत ही पेजनिया ना......
अरे रामा कवन , मास ई सलोनो 
बसुधा लगेली उतरल कनिया ना
अरे रामा वृंदावन की गलियां
खिलि गयीं अनगिन कलियां ना.........


वन में सिया रिन्हत रही खैका
राम डोलावे चंवरिया ना....
डोलत चवर जे ,लजाय बयरिया 
लखन के रूंधल बा गरवा ना
अरे रामा धन्य हो उर्मि सखा के
धनि धनि भ्रात पीरितिया ना ...........


        आकृति विज्ञा 'अर्पण'


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