तुम्हारे बिना प्रियतमा हम कैसे जिंदगी निकालते
तुम जो ना होती बेगम तो खुद को कैसे संभालते
धरी रह जाती हमारी सड़कों की नपाई प्यारी
तुम्हारे बिना जब कढ़ाई से पूरी निकालते
हरियाली देखने की तमन्ना आंखों से बुझ जाती
लाल लाल मिर्ची जब खुद ही सब्जी में डालते
ऑर्डर देना और कमियां गिनाना ना आता कभी भी
पसीने में डूब कर जब हम दाल चावल उबलते
दुनिया की खीज से भर जाता ये मन तो किस पे निकालते तुम्हारी कसम घर के आधे सामान ही तोड़ डालते
नमक और मिर्च की तेजी कम हो जाती बिल्कुल ही
खुद ही बना कर जब खुद कौर मुंह में डालते
काम से आके खोलते जब घर के बंद सारे ताले
प्यारी बिखर ही जाते अकेले रहने के सारे मुगालते
स्वरचित :रमेश कुमार द्विवेदी
कानपुर उत्तरप्रदेश
हास्य व्यंग :पति की उलझन