बाबूजी का थैला

:पितृसत्तात्मक दिवस


 ■ डॉ. सदानंद पॉल


होश सँभालने से अबतक,
थैले ढो रहे हैं बाबूजी;
बचपन में स्लेट व पोथी लिए 
थैले ढोये थे बाबूजी;
कुछ बड़े हुए, तो उसी थैले में
टिकोले चुनते थे बाबूजी;
उमर बढ़े, उसी थैले में मिट्टी खिलौने भर
बेचने, मेले जाते थे बाबूजी;
कुम्हारगिरी से गुजारे नहीं, तो दर्ज़ीगिरी लिए
उसी थैले में कपड़े लाते थे बाबूजी;
फिर टेलीफून भरकर उसी थैले में ले
खंभे निहारते थे बाबूजी;
गार्ड बन उसी थैले में
घर के लिए सौगात लाते थे बाबूजी;
पचास साल तक उसी थैले में
चिट्ठियाँ ढोते रहे बाबूजी;
उसी थैले में खुद के और मेरे भाई-बहनों लिए
लाई-मिठाई लाते रहे बाबूजी; 
रिटायर हुए फिर भी, रफ़ू कर-कर उसी थैले में
रोज सब्जी ढो रहे बाबूजी;
इस थैले के चक्कर में 
माँ को सिनेमा, कभी दिखा नहीं पाए बाबूजी;
इस थैले के चक्कर में
कहीं घूम-फिर नहीं सके बाबूजी;
पर इस थैले ने हम चारों को
जीने का सही सपने दिए हैं बाबूजी;
अब घुटने दरद के बाद भी
थैले ढोते हैं बाबूजी;
सत्तर पार तो कब के हुए,
थैले को, तकिये नीचे रख सोते बाबूजी;
उस थैले को शत-शत नमन,
कि शतायु नाबाद रहे, मेरे प्यारे बाबूजी।


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