-भूपेन्द्र दीक्षित
कोकिलों ने सिखलाया कभी
माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग,
कण्ठ में आ बैठी अज्ञात
कभी बाड़व की दाहक आग।
पत्तियों फूलों की सुकुमार
गयीं हीरे-से दिल को चीर,
कभी कलिकाओं के मुख देख
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
तॄणों में कभी खोजता फिरा
विकल मानवता का कल्याण,
बैठ खण्डहर मे करता रहा
कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.
श्रवण कर चलदल-सा उर फटा
दलित देशों का हाहाकार,
देखकर सिरपर मारा हाथ
सभ्यता का जलता श्रृंगार.(रसवन्ती-दिनकर)
आज पाश्चात्य सभ्यता मनुष्य पर हावी है ।घर की दाल रोटी छोड़ कर पिज्जा बर्गर को पसंद करने वाले युवा वर्ग पाश्चात्य सभ्यता के पीछे दीवाने हो रहे हैं।वे अपनी भाषा छोड़ कर विदेशी भाषा के पीछे भाग रहे हैं। उनमें अंग्रेजी तौर-तरीकों के प्रति इतनी दीवानगी दिखाई देती है कि वे शरीर से ही भारतीय हैं ,लगता है उनकी आत्मा भी परिवर्तित हो चुकी है ।
यह कविता इसी दिशा की ओर चिंता प्रकट करती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हमारे युवा वर्ग को भारतीय संस्कृति और सभ्यता का न सिर्फ सम्मान करना सिखाया जाए ,उन्हें हिंदी साहित्य और संस्कृत साहित्य का ज्ञान दिया जाए और अपने मूल की तरफ लौटते लौटते हुए उन्हें एक समृद्ध विरासत का वारिस होने का एहसास कराया जाए औरआवश्यकता इस बात की भी है कि हमारे लेखक इस ओर प्रयास करें और सस्ती लोकप्रियता और धन का लोभ छोड़कर भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार में अपना योगदान दें।