इस तस्वीर को
देखकर यह ख्याल आया..
न जाने क्यूं लोग..
प्रेम की परिभाषा..
फूल,पत्ती, चांद-सितारे
बादल, बरखा,नग्मों से देते है..
परिभाषा तो ऐसी हो जो
रेगिस्तानी घुल की तरह
चमकीली,चटीली और गर्म
होनी चाहिए...
जिसमें नागफनी का पौधा
बिन पानी के भी लहलहाती रहें
फिर ख्याल आया...
रेगिस्तान की घुल से..
जयपुर की गुलाबी
गलियों का सफर..
उस मदमस्त हंसिनी के लिए
कितनी सुखद होगी?
जो जलते बुझते...
अपनी रंगत बिखरते..
झारखंड की हरियाली में
अपने प्रेम को भी रंग ले जाये..
अद्भुत होगा न वह मिलन
सच में अलौकिक...
,जैसे..कोई मृगतृष्णा
या फिर कस्तूरी के लिए
भटकती हिरण...
नीलम बर्णवाल