गर वफ़ा न कर सके तो कर जफा।
कुछ तो अपने दार्मिया हो सिलसिला।
थक चुकी हूं करके अब फ़रियाद मैं।
जा रही हूं तुम न देना अब सदा।
आसमां को छू सकूं मैं भी कभी
या खुदा देना मुझे तूं हौसला।
बस गए हो तुम मेरी सांसों में यूं
जियू बसी है कृष्ण में वो राधिका।
जब से नज़रों कंटरे साकी पिया
बन गया है घर मेरा ये मयकदा।
बिन पिए ही झूमती मैं यूं रही।
जब से तेरी नज़रों का नशा हुआ
उम्र भर हमको वहीं छल ता रहा
जिसको हम कहते रहे अपना खुदा।
आज तुमको दे रही हूं मैं दुआ।
खुशियों से भरा रहे दामन तेरा।
** मणि बेन द्विवेदी