-भूपेन्द्र दीक्षित
आज की यह कड़ी महान विद्वान आदि शंकराचार्य और महात्मा सूरदास को समर्पित है। दोनों अपने समय के धुरंधर विद्वान रहे ,जहां आदि शंकराचार्य ने धर्म का संरक्षण किया, वहीं महात्मा सूरदास ने यह उद्घोष कर कि "संतन को कहा सीकरी सो काम ,आवत जात पनहिया टूटी ,बिसरि गयो हरिनाम" कह कर राज्यश्रय को इतना बड़ा आइना दिखा दिया कि आज तक उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती।
आदि शंकराचार्य भारत के एक महान दार्शनिक एवं अद्वितीय धर्मप्रवर्तक थे। उन्होंने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया। उन्होने सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया। उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं।
उनकी सौंदर्य लहरी का एक अंश देखें-
शिवःशक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुम् |
न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ||
अतस्त्वामाराध्यां हरिहरविरिञ्चादिभिरपि |
प्रणन्तुं स्तोतुं वा, कथमकृतपुण्यः प्रभवति ||१||
तनियांसं पांसुं तव चरण-पंकेरुह-भवम् |
विरञ्चिः सञ्चिन्वन् विरचयति लोकानविकलम् ||
वहत्येनं शौरिः कथमपि सहस्त्रेण शिरसाम् |
हरः संक्षुभ्यैनं भजति भसितोद्धूलन विधिम् ||२||
महात्मा सूरदास जी का एक पद देखें-
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु।।
सूरदास जी कहते हैं कि ब्रज की भूमि धन्य हो गई है क्योंकि श्रीकृष्ण जी अपनी गायों को यहां चराते हैं। वे बांसुरी बजाते हैं। श्री कृष्ण जी का ध्यान करने से मन को परम शांति मिलती है। वे अपने मन से ब्रज में ही रहने को कहते हैं।यहां पर सभी को सुख शांति मिलती है। यहां पर सभी अपनी अपनी धुन में रमे हुए हैं। किसी को किसी से कोई लेना देना नहीं है। वे कहते हैं कि ब्रज में रहकर ब्रजवासियों की जूठन से उन्हें अलौकिक भोजन प्राप्त हो जाता है, जिससे वे संतुष्ट रहते हैं।इस संतुष्टि की तुलना कल्पवृक्ष या सुरधेनु से भी नहीं हो सकती।
ऐसी दोनों महानात्माओं को साहित्यिक पंडानामा का सादर प्रणाम।