लाखों घर बर्बाद हो गए इस दहेज की बोली में ।
अर्थी चढ़ी लाखों कन्याएं बैठना पाई डोली में ।।
कितनों ने अपनी कन्या के पीले हाथ कराने में ।
कहां-कहां नहीं मस्तक टेके आती शर्म में बताने में ।।
जिस पर बीते वही जानता, शब्द नहीं है कहने के ।
कितनों ने बेचे हैं घर अब तक अपने रहने के ।।
गहने खेत दुकान रख दिए सिर्फ मांग की रोली में ।
लाखों घर बर्बाद हो गए इस दहेज की बोली में!!
यही हमारा मनुष्य रूप है यही अहिंसा प्यारी है ।
लड़की वालों की गर्दन पर तेज खड़ी कटारी है ।।
आग लगे ऐसे दहेज को मानवता की टोली में ।
लाखों घर बर्बाद हो गए इस दहेज की बोली में ।।
अभी चेतो लड़के वालों कन्याओं की शादी में ।
नहीं बटाओ हाथ तुम इस तरह की बर्बादी में ।।
तुमको भी ऐसा दुख होगा जब ऐसा क्षण आएगा ।
अथवा यह बेबस का पैसा तुम्हें नरक ले जाएगा ।।
✍️
सिद्धेश्वरनाथ पांडेय
असहनी ,छपरा
बिहार