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बाबुल का आँगन छोड़ ..
चली जाती हैं बेटियां एक दिन
एक अन्जान रिश्ते से बंध कर
दूसरे कुल की मान बढ़ाने ...
हाँ ठीक ही तो कहते हैं ..
जिस लाडली की जड़ ,
बाबुल की बगिया में होती है ..
उसे उखाड़ कर ..
पराये आँगन में
रोप दिया जाता है
फलने फूलने के लिए ...
मान कर उनको आपना मीत ...
अनजानी राहों पर
चल देती हैं निरीह सी ...
कुछ पाने ज़मीं ...
कुछ छूने आसमाँ ...
बसाने सपनों का संसार ...
अज़नबी हम सफ़र के साथ ..
सूनी कर बाबा की देहरी ..
सूनी कर माँ की गोद ...
ख़ामोशी अख्तियार कर ..
पलकों पे सजा
ढेर सारी अतीत की यादें ...
आँचल की खूंट में बाँध ..
वो तमाम नसीहतें समेटे ...
चल देती है ....
एक अनजान सफ़र पर
अपना प्यारा बचपन ...
सब गिरवी रख जाती हैं ...
माँ के अंगना में ही ...
अपनी जड़ें छोड़ ...
नए बसेरे में फलने फूलने ..
तलाशती हैं हर नए चेहरे में ..
अपनापन ,प्यार ,नेह ,स्नेह ..
क्या सच में ...
बेटियों का अस्तित्व
स्थाई नहीं होता ???
कहाँ होता है इनका ??...
''अपना अंगना ''
**मणि बेन द्विवेदी
वाराणसी