ख्वाहिशों को छिपाती थी
कभी चावल के डिब्बे के नीचे
तो कभी दाल के कटोरे के पीछे
फेफड़ों में भरती थी
चूल्हे से उठता गर्म धुआं
और बनाती थी रोटियां
खुद से अक्सर वो
एक सवाल पूछा करती थी
कौन हूँ मैं ?
क्या वज़ूद है मेरा ?
सिर्फ माँ,
बहू, विगत वर्षों की बेटी,
एक अदद पत्नी,
न जाने कितने पात्रों की
अदाकारी वो, बखूबी
निभाया करती थी,
निभाती भी क्यों नहीं
धरा तुल्य औरत जो थी
न जाने कितनी बार
वो टूटी, बिखरी,
फिर खुद को समेटी
उन सवालों का जवाब
एक नए सिरे से
फिर तलाशती
वो अकेली न थी,
उसकी कुछ सहेलियां
और सखा भी थे
जिनसे वो घंटों बतियाती
खिड़कियां, दरवाज़े
छत और दीवारें
उन संग वो अक्सर
हंसती, रोती
और अपना ग़म बांटती
उसने सीख लिया था
तन्हाई में सिसकना
फिर सम्हल जाना
कभी बस का इंतज़ार
तो कभी ट्रेन का सफ़र
हर चेहरे को घूरती
उसकी आंखें लौट आती
खाली हाथ, एक थके
विषादमय जुआरी की तरह
वो मृत न थी
मृतप्राय थी
घुटती चीखें
नम आंखें
किसी फांस के मानिंद
गले में उसके आंसू
उलझे ख्याल
लड़खड़ाते कदम
अनिश्चित भविष्य
उसे तलाश थी
एक कतरा प्रेम
और महज़ अपने
होने का अहसास,
कुसुम तिवारी झल्ली
17,02,2020