जब सांसों ने उथल-पुथल की मनतल में।
सुख-दुख ने तन क्लांत किया मन हरपल में।।
सुमिरन में जब जाप किया शिव शंभू का-
कोलाहल को घोल पिया गंगाजल में।।
ड़ोर पकड़ कर हाथ से मेरे जीवन की-
भोले बाबा खींच रहे पथ दलदल में।।
दो पल का भी चैन नहीं जब दिल पाता-
ख़ास बजाते डमरू मन के दंगल में।।
जो अंदर है वो ही बाहर दुनियां में है
घूम रहे मन गलियां अंखियां चंचल में।
हार गया जब मानव अपनी दिल धड़कन-
ढक लेते है उसको अपने आंचल में।।
जल मे थल मे या हो कोई मरुथल मैं-
सबके मन को पढ़ लेते हैं इक पल में।
मन की धरती पर बोया जब बीज कमल-
गान शिवा का लहराया जल निर्मल में।।
संगीता पाठक