पुस्तक समीक्षा : अब शैय्या-शेष की त्याग"


कृतिकार:  लता सिन्हा ज्योतिर्मय
कभरपेज चित्रण: लता सिन्हा 'ज्योतिर्मय'
प्रकाशकः  बेस्ट बुक बड्डीज टेक्नोलॉजिस प्रा. लि.
एफ-34/एस, ओखला इंडस्ट्रीयल एरिया, फेज-2, 
नई दिल्ली-110020


पृष्ठः 112.   मूल्यः 150/-


समीक्षकः  मुकेश कुमार सिन्हा


कोई भूख से तड़प रहा है, तो कोई प्यासा मर रहा है। किसी को चिंता में रात गुजारनी पड़ रही है। महंगाई चिढ़ा रही है। मानवीय गुणों का क्षरण हो रहा है। समाज में राक्षसी प्रवृति का बोलबोला हो रहा है। ऐसे में, कलम का जागे रहना जरूरी है। जरूरी है कलम का चिल्लाना। कलम का चिल्लाना इसलिए भी जरूरी है, ताकि तम से छूटकारा मिले, लोग अपनी नींद तक को भूल जाये। 
शेषनाग की शैय्या त्याग कर स्वयं श्रीहरि भारत को पुनः भारत बनाने के लिए उठ खड़े हों , इसी चिंतन पर प्रकाश डालती  कोशिश है यह पुस्तक-''अब शैय्या-शेष की त्याग''।
लता सिन्हा 'ज्योतिर्मय' रचित 'अब शैय्या-शेष की त्याग' में विभिन्न भावों की 49 कविताएँ हैं। माँ शारदा सुता सम्मान, नेशनल एक्सेलेन्सी अवार्ड, महादेवी वर्मा रजत सम्मान, विशिष्ट प्रतिभा सम्मान से सम्मानित कवयित्री की यह दूसरी एकल किताब है। 'मेरा अन्तर्मन' कविता संग्रह पूर्व में प्रकाशित है। 
वह कविता ज्यादा भावपूर्ण होती है, जो स्वतः गढ़ती चली जाये। दिल से लिखी गयी कविता में भाव की पूर्णता होती है। कवयित्री ने ठीक कहा-'काव्य मन के काल्पनिक पटल पर जब जिस भाव ने अपनी शीतलता बिखेरी अथवा रेतीली गर्म हवाओं ने रेत के शुष्क परत चढ़ा दिए, तत्क्षण यह प्रतिबद्ध लेखनी उसके समाधान हेतु शब्द तलाशते हुए भावों की लंबी साँसें भर कल्पना के अथाह सागर में गोते लगाने लगती थी।' स्पष्टतः कवयित्री ने बैठकर कविताएँ नहीं गढ़ी, बल्कि जब जैसा विचार आया, उसे कागज पर उतार कर कविता का रूप दे डाली। निश्चित, ऐसी कविताएँ दिल के बेहद करीब होती हैं।
लता सिन्हा 'ज्योतिर्मय' लेखकीय में स्पष्ट करती हैं कि 'मेरी कविता मेरी आत्मा का वह स्त्रोत है, जिससे निकलते प्रवाह को मैंने पंक्तिबद्ध कर आप सुधिजनों तक रखने की कोशिश की है। आगे-अब देखना तो आप सुधी पाठकों को है कि मुट्ठी में भरकर मोती निकले या सिर्फ चमकीले पत्थर? 
      कवयित्री परंपरावादी है। आध्यात्म में उनकी गहरी आस्था है। वह सनातन सोच रखती हैं। ऐसा होना लाजिमी है। कवयित्री ने यह पुस्तक 'मेरे महादेव' के श्री चरणों में समर्पित की हैं। हम-आप सभी जानते हैं कि भारत की भूमि देवों की भूमि रही है। कण-कण में भगवान का वास है। नदी, पशु, पक्षी, पहाड़ को हम आदर की दृष्टि से देखते हैं।
"मेरे महादेव तू है मुझमें
तभी मैं तुझसे ज्योतिर्मय हूँ
तू चक्षु मध्य आबद्ध मेरे
हुए ज्योतिर्मय, मैं शिवमय हूँ...."


समाज को लेकर कवयित्री संजीदा हैं। सामाजिक विघटन और सामाजिक कुरीतियों के बढ़ते प्रभाव से उनका दिल और दिमाग घायल है, इसलिए कवयित्री श्रीहरि स शैय्या-शेष की त्याग करने का आह्वान करती हैं। समाज में मानवता छली जा रही है। इंसान संकट में है, हर तरफ नफरत की आग पसरी है। द्वेष-राग का बोलबाला है, सभी गुस्से की आग में धधक रहे हैं। दुःशासन के हाथ बढ़ गये हैं, महिलाओं का चीरहरण हो रहा है। कण-कण में कौरव बसे हैं। ऐसी स्थिति में कवयित्री योग निद्रा से जागने की अपील करती है-
"अहो....।
अहो देव....। हे हरि विशेष
ओ....चक्रपाणी....तू जाग-जाग
यहाँ डूब रही मानवता छल-जल
अब शैय्या-शेष की त्याग-त्याग।"


कवयित्री की झिड़की-
"अब कब तक तू...यूँ मौन रहेगा?
संकटग्रस्त मनुज, चहुँ लगी आग
क्यूँ क्षीरसागर सोया तू अब तक?
अब योग-निद्रा से....जाग-जाग.....!"


आज समाजिक सहनशीता लगभग समाप्त हो चुकी है । जिस तरह नन्हें खरगोश पर नित्य दिन बाज का पंजा पड़ रहा है परन्तु उस नन्हीं सी जान की छटपटाहट और चीख अनसुनी की जा रही है। ऐसे मौके की तलाश में बाज हमारे घर तक पहुँचते जा रहे हैं और मासूमों की जान लेने पर अड़े हैं। वैसे दरिंदगी के पंजों के निशान से बदन लहू-लुहान है। जब समाज बेजान बुत बन केवल एक मूक द्रष्टा की भूमिका अदा कर रहा हो, तो ऐसे में कवयित्री की चिंता जायज है।


"ओहहह.... जख्मों को चाटते
हर टीस में गोते लगाते....
रग-रग को खखोड़ते....
हड्डी तक......
निगल जाने को आतुर
कैसे बचा पाएगी अपना वजूद...???"


लेकिन, दूसरी तरफ कवयित्री साफ कहती हैं कि स्त्री निश्चित ही अपना वजूद बचा लेंगी। शेरनी बनकर टूट पड़ेंगी और जिंदा गोश्त के लिए टपकते लाड़ वाले जीभ को जड़ से खींच देंगी। निश्चित, तौर पर स़्त्री अगर त्याग की मूर्त्ति है, सहनशील है, तो अस्तित्व को बचाने के लिए वो प्रचण्ड रूप भी धारण कर सकती हैं। स्त्री के उस रूप में आने का कवयित्री आह्वान करती हैं-
"आवश्यक है...
नितांत आवश्यक...
कोई दया नहीं
सिर्फ क्रोध...
वही क्रोध....
चामुण्डे...वही क्रोध...!"


कवयित्री संवेदनशील हैं, उनकी चाहत है कि सबकी पीड़ा हर ली जाये। वो जानती हैं कि यदि आज बादल छलिया बना हुआ है, तो इसमें मानव की ही गलती है, फिर भी बूँदों की आस लिये कवयित्री मनुहार करती हैं। हम पर तरक्की का इस कदर भूत समाया है कि नदी, नाला, आहर, पइन, तालाब, पेड़, पहाड़ सब हजम कर लिये हैं। ऐसे में बादल तो नाराज होगा ही। दानवीय प्रवृति के बाद भी कवयित्री कहती हैं-
"बंजर न बन जाए कहीं
जो कोख थी खुशियाँ भरी
कृषक के संताप सुन,
कर दे तू बूँदों की झरी।"
आगे-
"वृष्टि से तू तृप्ति देकर
खेतों को अब सींच दे,
उठे लहलहाते यह फसल
भरे ताल, नदियाँ, पोखरी।" 


भारत भूमि की वेदना से मन का आहत होना स्वभाविक है। देश की माटी आज लाल हो चुकी है। मानवता पर दानवता हावी है। पुत्र कुपुत्र होता जा रहा है। शांति के बीज धरा से फूट नहीं पा रहे हैं।
एक तरफ अटल अडिग और दृढ़ निश्चयी हिमालय से उत्पाती और उद्दंड राष्ट्र को दंडित करने का आह्वान कवयित्री करती हैं, लेकिन दूसरी तरफ उनका प्रश्न भी है कि आखिर सामाजिक कुरीतियाों का दोषी कौन है? क्या हम दोषी नहीं हैं? केवल कुर्सी पर तोहमत लगाकर हम कब तक अपनी जिम्मेदारियों से बचते रहेंगे।
"अब आत्म-जागृति जोत जला
ज्योतिर्मय नेत्र तो खोलो ना..."
आगे-
"नैतिक मूल्यों का मोल बढ़े
तो सार्वभौम उत्थान भी हो
समृद्ध युक्त जब हो भूतल
स्वर्णिम-सा नवल विहान भी हो..."


कवयित्री का आह्वान है कि भारत को भारत बनाया जाये। अपनी अंतर्वेदना को बिसारकर लक्ष्य को भेदा जाये। चेतन की लौ से मशाल जलायी जाये। भ्रष्ट तंत्र को दूर किया जाये। राष्ट्रहित के सवाल पर जनता को जागृत किया जाये। 
"इस देश का उत्थान हो, 
जो स्वयं में आत्म ज्ञान हो
एक क्रांति से विहान हो, 
चल ज्योतिर्मय विचार कर
हाँ स्वयं को वार कर...."


भारत की अपनी कहानी है। कई-कई राज्यों, कई-कई बोलियों, कई-कई त्योहारों, कई-कई परंपराओं के बाद भी भारत एक है। यहाँ मस्जिद में अजान गूँजती है, तो मंदिर की घंटी भी गुँजायमान है। भारत के सैनिक भी फौलादी हैं और उनकी आँखें सरहद पर टिकी है, ताकि दुश्मनों को उसकी 'औकात' बता दी जाये। कवयित्री मुस्कान और गर्व के साथ कहती है-
"उस हिमालय से मचलती हुई 
दरिया जो निकलती
महज जल ही नहीं,अमृत लिए 
गंगा का पानी है...
हमारे देश की मैं ही नहीं
दुनिया दिवानी है।"


कवयित्री सैन्य पुत्री है। सच पूछिए, तो जाँबाज सैनिकों की वजह से ही हम निश्चिंत होकर सो पाते हैं। हमें सुलाने के लिए सैनिक नित्य अपनी नींद का त्याग करते हैं। बड़े भाग्यशाली होते हैं वो, जिनकी जान देश की आन-बान और स्वभिमान को बचाये रखने में जाती है। सैनिक की शहादत पर माँ, पत्नी और पिता विलाप नहीं करते। माँ तो कहती है कि अगर उनके सौ पुत्र होते, तो सभी को देश के लिए न्योछावर कर देती। पिता कहते हैं कि "सीने पर गोली खा लेना, लेकिन पीठ नहीं दिखाना।" सैन्य परिवेश को कवयित्री ने नजदीक से देखा है, समझा है, जाना है। कवयित्री में भी राष्ट्रप्रेम कूट-कूटकर भरा है। जब माँ भारती सिसक रही हो और लेखनी पर धिक्कारती हो, तो कलम का योद्धा बनना जरूरी है, ताकि क्रांति की ज्योति जलायी जा सके, धुंध के पट को खोला जा सके। कवयित्री साफ कहती हैं-
"भले प्राण छोड़े देह लेकिन
प्रण कभी होगा न भंग
लेकर कलम सा शस्त्र और
निष्पक्षता लेखन के संग..."


कवयित्री अपने आराध्य देव से सवाल पूछती हैं कि आखिर क्या कारण है कि शिव ने सती का त्याग किया? कृष्ण ने राधा के प्रेम का बहिष्कार किया? सीता त्यागी गयीं? पुरुष प्रधान परिवेश में नारी को क्यों बेचारी बना दिया गया? अधिकार से वंचित कर दिया गया? कोमल भावनाओं का हनन क्यों? 'यक्ष प्रश्न, आखिर क्यूँ?' के माध्यम से कवयित्री ने तर्क के साथ पुरुषवादी समाज को चुप कराने की कोशिश की है। वह जानना चाहती हैं कि सीता की धरती में समाते ही राम ने विलाप क्यों किया? शिव निष्ठुर थे, तो सती के शव को क्यों ढोया गया? कवयित्री ने पूछा-
हे देव... मेरे महादेव...
कुछ तो बोलो....!
आज एक नारी
जो पुरुष प्रधान परिवेश में
बना दी गई है बेचारी....
कवयित्री साफ-साफ कहती हैं-
क्योंकि हर बार दोषी... देवी नहीं,
आगे-
संवेदनहीन या चक्षुदोष
या पुरुष अहम् की वेदी है


कवयित्री का महादेव के प्रति गहरी आस्था है, गहरा प्रेम है। ऐसे में काशी की चर्चा न हो, यह कैसे संभव है? सती का भगवान शिव से गहरा अनुराग था। राजा दक्ष द्वारा भगवान शिव को नहीं बुलाये जाने पर सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर डाला था। बाद में सती अगले जन्म में पार्वती के रूप में पूर्णावतार ली और भगवान शिव की पार्वती बनीं। कवयित्री ने सती के मन की बात अपनी लेखनी के माध्यम से कह गयी।
भले अंग-प्रत्यंग विभक्त गिरे
तेेरे काँधे जो सुख पाया है
उस मर्म हेतु कोई शब्द नहीं
दर्शन से पृथक ये माया है...
आगे-
अनुभूति विशेषतः हृदय रही
यह शिव नगरी मेरी ठहरी
हूँ उस औढर की प्रियतमा
जो इस नगरी का है प्रहरी।


सबसे ज्यादा बलवान कौन? निश्चित इसका उत्तर होगा-वक्त। वक्त सबसे ज्यादा बलवान है। वक्त किसी को राजा बना देता है, तो किसी को रंक। समय का चक्रव्यूह जो खेल दिखला दे। सच पूछिए, हम तो गुलाम हैं वक्त के। कवयित्री समझती हैं वक्त की कीमत। आज रोने वाला कल हँस दे और हँसने वाला कल रो दे, कौन जानता है? कवयित्री ने कहा-
जो आज गिरा हो गर्दिश में
कल उदयमान हो गगन मिले
वक्त ने हर एक जख्म भरे
मरहम बनकर जब लागा रे


यह शरीर माटी का है और माटी में मिल जाना इसकी नियति है। जब तक साँस है, हम स्वयं की चिंता में रहते हैं! साँस टूटने के बाद क्या साथ जायेगा? हम तिनका भी साथ नहीं ले जा सकते हैं। हाँ, अपनी खनक छोड़ सकते हैं, ताकि याद किये जाते रहे युगों-युगों तक। ठीक ही कवियित्री की कलम कह गयी-
"बस वह खुशबू रह जाएंगी
जो सत्कर्मों से पाएगा...
जितना कुछ पाया संजोया
सब यहीं धरा रह जाएगा
तन मिट्टी में मिल जाएगा..."


कवयित्री निर्गुण कविताएँ रचती हैं। कभी उनकी कलम चीखती हैं, कभी उनकी कलम मनुहार करती है। उनकी कलम प्रेम कविताएँ भी रचती हैं। जब धवल रोशनी में उन्मुक्त वातावरण के बीच प्रियतम होले से गोद में सिर रखकर प्यार करे, तो तन और मन भींग उठता है। ऐसा लगता है कि चाँद की चंचल किरण ने मानो सोलह शृंगार कर दिया हो। 
प्रेममय कविता-
"प्रीत रंग मेरा-अंतर्मन
ज्योतिर्मय आत्म-निखार गया
फिर चाँद की चंचल किरणों ने
मेरा सोलह शृंगार किया।"


धरती के दर्द को शायद कोई समझ पाये। धरती बिलखती है! फल्गु की तरह धरती का भी दर्द है, लेकिन कोई समझे तब न। धरती की भी चाहत है, अरमान है, लेकिन इंसान किसी की चाहत का परवाह किया है क्या? 
धरती की वेदना-
"आपस में मत बाँटों खुद को
तुम सारे मेरे लाल प्रिय हो।
क्यों कटते सरहद में बंटकर
एक-दूजे के ही बन्धु हो।
मातृभूमि के नाम पे मिटते
वीरों को सम्मान मिलेंगे
पर सोचो.... इस माँ के आँचल
किसके रुधिर से लाल मिलेंगे !"


हम मिलते हैं, वादा करते हैं, लेकिन फिर भूल जाते हैं। विवाह एक पवित्र बंधन है, जिसमें सात फेरे लिये जाते हैं, सात जन्मों तक साथ निभाने की कसमें खायी जाती है। लेकिन, साथ निभ कहाँ पाता है? कवयित्री की कविता में संवेदनशीलता है, लेकिन अपनों के बदलते मिजाज से उनकी कलम कठोर भी हो जाती है और लिख डालती है-
"जो चले गये तुम जीवन से
अब यादों से भी जाओ न
बेमतलब ही यूँ रह-रहकर
ऐसे तो मुझे सताओ न"
एक मनुहार-
"चली अपनी अर्थी ले कांधे
सुनो गंगा के तट आओ न
मुखाग्नि तक का वादा था
चलो अंतिम राह दिखाओ न
मुझसे मिलने को आओ न..."


हम भ्रमित हैं ! सच पूछिए, तो हम खुद को ही छल रहे हैं। जब पिंजरा तोड़कर नन्हां पंछी उड़ेगा, तो क्या शेष रह जायेगा? इस जीवन के भी क्या कहने? यहाँ प्रीत भी पीड़ा बनते हैं और मित्र भी हन्ता। घर में ही माई उपेक्षित है।  है न विडंबना। तब कवयित्री सवाल उठाती हैं-
"पर निरंतर मार्गदर्शक
स्वयं के क्यूँ बनते नहीं
जीवन की मृगतृष्णा में
स्वयं को ही छलते सभी...।"


कवयित्री की चाहत-
"कई मोतियाँ बिखरी पड़ी
पर स्नेह धागा सख्त हो
प्रतिकूल हों परिवेश भी
पर भाव न विभक्त हो..."


यदि मनमीत रूठ जाये, तो मानो जीवन का संगीत रूठ जाता है। मनमीत के बिना धड़कन की चाल बदल जाती है, दिल बेहाल हो जाते हैं, रातें पहाड़ जैसी लगती हैं। तन और बदन विरह की आग में धधकने लगता है। कंगन, चूड़ी, लहठी को भी प्रियतम प्यार की तलाश है। कवयित्री कहती हैं-
"चुप है कंगन, चूड़ी, लहठी 
खोजे प्रियतम-प्यार
बंसी की धुन पे जो नाचे 
चुप है वे शृंगार
कब आओगे मुझे बताओ, 
ऐ मेरे मनमीत?"


कवयित्री की चाहत है कि धरा सुरक्षित हो, धरा पर हरियाली हो, धरा स्वच्छ रहे, सुंदर रहे। क्या हम धरा को स्वच्छ और सुंदर रखने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं? हम-आप जानते हैं कि आस-पास का वातावरण जब सुंदर होगा, तो स्वास्थ्य ठीक रहेगा। सेहत संपति होती है। कवयित्री ने कहा-
"हम स्वच्छ बनाएं घर अपना
हर गली-मुहल्ला निर्मल हो।
घर, शहर, देश सब स्वच्छ रहे
और स्वच्छ हमारा भू-तल हो।"


कवयित्री समाज को सुधारना चाहती है। वह चाहती है कि कोई शराब का सेवन नहीं करे, मुँह से धुआँ नहीं छोड़े। आखिर तम्बाकू का सेवन अतिघातक है, तो हम 'बलाय' क्यों ले रहे हैं अपने माथे। जीवन अनमोल है, फिर भी हम अपनी चिता सजाने को आतुर हैं। कवयित्री आगाह करती हैं-
"अरे, सुनो सुनो, नादान सुनो
कई जतन लगा जो संजोया
सब हवन चला जाए पल में
यदि स्वास्थ्य का धन तुमने खोया..."


कवयित्री ने ठीक ही कहा है कि हममें लाख योग्यता हो, लेकिन यदि हम असामाजिक हैं, तो सब कुछ व्यर्थ है। हम ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहाँ हर दिन विश्वास की हत्या हो रही है। प्रेम मौन है और दर्द बढ़-चढ़कर अपनी भागीदारी निभाने को आमादा है। नीतियाँ भ्रमित हैं और स्वार्थ हावी। तब, कवयित्री लिखती हैं-
"संज्ञान जनहित की लिए
हर स्वार्थ से जब हों परे
रच डाले कीर्तिमान स्वयं
विख्यात जग उसको करे..."
आगे-
"सदाचार और नैतिकता
है हिन्द के रग-रग में बहती
वेद मंत्र की मर्यादा जो
देव अतिथि को कहती
बलि-कर्ण के वंशज हम
जो आत्म-दान दे आया है। "


सरल शब्दों में गढ़ी गयीं कविताएँ 'अब शैय्या-शेष की त्याग' की विशेषता है। लता सिन्हा 'ज्योतिर्मय' की कलम से साहित्य की जोत जलती रहे, यही कामना है। कवयित्री की पैनी दृष्टि कविताएँ गढ़तीं रहे, ताकि सरस्वती माँ का भंडार भरा रहे। आवरण सुंदर व आकर्षक है,जिसे कवियित्री ने स्वयं बनाया है, कहीं-कहीं प्रुफ में गड़बड़ी है, पर किताब पठनीय है।                                                                                                                                                   


मुकेश कुमार सिन्हा
चलितवार्ता-9304632536


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