ओ मेरे मन!
तू क्यूँ है इतना संवेदनशील!?!
यह सच है कि
तूने देखा है :
भेड़ - बकरियों की तरह
कटते हुए आदमियों को!!
कोई
लकड़ियों पर भी नहीं चलाता
यूँ बेतहाशा आडी़!
जिस बेरहमी से
रेत दिया जा रहा
आदमी का गला!!
आग में भूनकर
ज्यों खाते हैं आलू!
बड़े चाव से!!
यहाँ सरेआम... बेखौफ...
गोलियों के चूल्हे में!
आदमियों का ईंधन डाल!!
खाते हैं सत्ता का मोहनभोग!!!
पर कहीं कोई हलचल नहीं!
न कोई सुगबुगाहट :
दर्द की!
विरोध की!!
... ऐसे में
तू अकेला क्या करेगा!?!
... पर ठहर!
तू अपने संकल्प पर
डटा रह....
अडिग....
अविचल....
एक उम्मीद का दीया!
कर सकता है रौशन!!
हजारों बुझे दीए :
मन के...
आत्मा के....
देखो कहीं -----
तू भी न हो जाना
महानगरों - सा!
भीषण हलचल से भरा होकर भी
संवेदनाओं से निरा शून्य!!
डॉ पंकजवासिनी
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