साहित्यिक पंडानामा:१४

 



 


 



              -भूपेन्द्र दीक्षित
जे•एन•यू•को समर्पित
धूमिल ने लिखा-


'ठीक है, यदि कुछ नहीं तो विद्रोह ही सही'
— हँसमुख बनिए ने कहा —
'मेरे पास उसका भी बाज़ार है'
मगर आज दुकान बन्द है, कल आना
आज इतवार है। मैं ले लूँगा।


इसे मंच दूँगा और तुम्हारा विद्रोह
मंच पाते ही समारोह बन जाएगा
फिर कोई सिरफिरा शौक़ीन विदेशी ग्राहक
आएगा,
मैं इसे मुँहमाँगी क़ीमत पर बेचूँगा।


यही हाल है आज के विद्रोही समारोहों का ।लोग विचार बेच रहे हैं और खरीददार खरीद रहे हैं। दोनों का फायदा है। नुकसान है सिर्फ शिक्षा और साहित्य का। इसमें न कोई वक्ता है और न कोई श्रोता है। सिर्फ बाजार है ,बेचने वाले हैं और खरीदार हैं।
 लोग अपने को बुद्धिजीवी समझते हैं और ऐसा वे लोग समझते हैं ,जिनको भाषा का बुनियादी ज्ञान तक नहीं और यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम ऐसे समय में रह रहे हैं जहां भाषाई सलीका भी न जानने वाले कवि हैं ,चार पंक्तियां सलीके से न लिखने वाले लेखक हैं और चार किताबें भी न पढ़ने वाले संचालक हैं और  चलने की तमीज भी न आती हो, ऐसे बुद्धि जीवी हैं और हम जैसे लोग ताली बजाने वालों की श्रेणी में बैठे हैं। धूमिल तुम कितने बुद्धिमान थे। क्रमशः


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