नारी का अस्तित्व

 



हाँ मैं नारी हूँ मेरा भी ''अस्तित्व'' है 
नारी प्रकृति का वो वरदान हूँ जिसके ''अस्तित्व'' के बिना 
बाकी कोई ''अस्तित्व'' नहीं होता 
ये शास्वत सत्य है! 
तो फ़िर जो नारी सृस्टि की रचयिता है 
उसे क्यों देखा जाता है हेय दृस्टि से?
उसे क्यों एक भोग्या के रूप में स्वीकारा जाता है?
एक पिता के लिए वो सामाजिक बोझ होती है 
तो एक माँ हर पल उसे संस्कारों की घुट्टी पिलाती है 
उठते बैठते उसके संस्कारों का बोध कराया जाता है 
याद है वो पल जब एक बार पांव से भाई को छू दी थी 
उसे कितनी डाँट पड़ी थी 
अरे वंश को पैर लगाती है 
काट दूंगी पैर दूर हटो। 
तो क्या नारी का'' अस्तित्व'' परे है उस पुरुष से?
जिस पुरुष के ''अस्तित्व'' का निर्माण भी 
स्वयम एक नारी करती है 
भाई कभी नहीं चाहता उसकी बहन बाहर निकले 
हर समय उसे एक ही सीख दी जाती है 
नजरें झुंका कर चलो,किसी के बात का जवाब मत दो 
पराये घर की अमानत हो सऊर सीखो। 
अब बड़ी हो रही हो कायदे से दुपट्टा लो 
उसके बाद भी वही पुरुष जिनकी पैनी धारदार नजर 
ढूढ़ ही लेती हैं एक नारी में ''देह'' को 
उन वासना भरी नजरों से बिंघ जाती है नारी 
न जाने कितने नामों से निभाती है आपने किरदारों को 
पर उसेको ही गुजरना पड़ता है 'अग्नि परीक्षा'' से 
नारी ही शापित हो पाषाण बन जाती है। 
फिर भी धन्य है नारी 
नमन है उसके''अस्तित्व को''
क्यूंकि वो सबका मान रखती है 
अपनी ख़ुशी क़ायम रखती है। 
फ़िर भी आज ''अस्तित्व'' शापित है नारी का 
जिसे तलाश है हर नारी को। 


@ मणि बेन द्विवेदी 
वाराणसी ( उत्तर प्रदेश )


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