कहानी : पुनरावृत्ति

 


      



        


 


''कनु ! कहाँ हो बेटा? " सुमन अपनी बहू को आवाज लगाती उसके कमरे की ओर जाने लगी। " आई.. माँ ! " कनु हड़बड़ा कर बिस्तर पर उठ बैठी।


   " अरी, बैठी रह। यह लो प्रसाद, खासकर तुम्हारे लिए मंगवाया है। सुना है कि इसे खाने से पुत्र की प्राप्ति निश्चित रूप से होती है। बस, मैं चाहती हूँ कि इस बार मैं पोते का मुँह देख ही लूँ।" अपूर्व सुख की कल्पना सुमन के चेहरे पर तैर रही थी।


            कनु सास की इच्छाओं को भली - भाँति समझती है।सुमन के जेहन में पुरानी मान्यताएं इस कदर कुण्डली मार कर बैठी है कि वह उन्हें झुठला नहीं सकती। रूढ़ियां, परंपराएं और मान्यताएं सब उनके लिए धर्म के साँचे में ढला है। उन्हें बदलना या अनदेखी करना तो मानों उनके लिए महापाप है। वह अपनी सास को जहाँ तक समझ पायी है, तो वह एक सरल हृदय वाली हैं जो गलती से भी किसी का दिल नहीं दुखा सकती हैं। कनु ने कभी उन्हें सास नहीं समझा। बस, हमेशा माँ की तरह ही प्यार और सम्मान दिया है। सुमन भी बहू को कभी अपनी बेटियों से अलग नहीं समझती है। हमेशा ही कनु को सिर आँखों पर बिठाए रखती है।


                कभी - कभी कनु को उनका बेहद रूढ़िवादी होना खलने लगता है। वह चाहती है कि सुमन भी बदलते जमाने की नई सोंच को अपनाएं , किन्तु सुमन के लिए वह सब पाप है। ऐसा भी नहीं है कि उसकी सास सुमन नासमझ हैं, कभी - कभी वह समझना नहीं चाहती हैं, कनु इस बात से भली - भांति परिचित है। कभी वह स्वयं से पूछती भी है कि अगर उसकी सास एक अदद पोता चाहती भी है तो इसमें बुरा क्या है ? अगर उसके वश में होता तो वह उन्हें निराश नहीं करती, किंतु ऐसा होगा तो नहीं न !


              कनु सास का दिया प्रसाद श्रद्धा से खा गई । वह इसलिए नहीं कि इसे खाने से उसके पेट में पल रहा बच्चा बेटा पैदा होगा, बल्कि इसलिए कि उस प्रसाद से उसकी सास की आस्था जुड़ी हुई थी और वह अपनी सास के मन को ठेस पहुंचाना नहीं चाहती थी। वह समझती है कि जरूरी नहीं कि विचार मेल नहीं खाते हों तो बहस छेड़ी जाये और आपसी संबंधों में खटास घोल ली जाए। वह संयत रहकर परिणाम की प्रतीक्षा करने का धर्य धारण करने की कला जानती है। उसकी इसी सूझबूझ पर तो उसके पति जान छिड़कते हैं।


              कनु सुमन की इकलौती बहू है। तीन बड़ी ननदें और सबसे छोटा उसका पति रोहण। सुमन खुद बताती थी अपने जमाने की सारी बातें। लगातार तीन बेटियों को जन्म देने के बाद कितने लांक्षण और उपहास को झेला था उन्होंने, कहते - कहते द्रवित हो उठती थीं। उनकी दो छोटी देवरानियों की गोद में पुत्र खेलता था जिस पर उनकी अनपढ़ सास नाज करती थी और बात - बात में सुमन को बेटियों की माँ होने का ताना मारने से नहीं चूकती थी। सुमन के पति एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। अच्छी तनख्वाह मिलती थी। घर में बड़े होने की जिम्मेदारी भी कंधे पर थी जो सुमन के लिए एक ढाल का काम करती थी और सुमन अपने साथ होन वाली ज्यादती  बच जाती थी।


           एक दिन सुमन ने देखा था कि उसकी सास पड़ोस की कुछ महिलाओं के साथ कानाफूसी कर रही थी। बात तब खुली जब शाम को सुमन के पति घर लौटे थे। सबको खाना खिलाने के बाद सुमन अपनी बेटियों को अपने कमरे में सुला रही थी कि उसके पति की जोरदार आवाज सुनाई दी " माँ, मैं तुम्हारी एक नहीं सुनने वाला। मैं हरगिज दूसरी शादी नहीं करूँगा। मेरी बेटियाँ मेरे लिए बेटे से कम नहीं हैं। न मुझे ईश्वर से शिकायत है और न ही अपनी पत्नी सुमन से, बस !"


               सुमन का दिल जोर - जोर से धड़कने लगा था। उसने सोंचा नहीं था कि उसके साथ यह सब होने वाला है, तभी उसके पति कमरे में आए और सुमन के कंधे पर हाथ रख कर कहा " सुमन, बेटा या बेटी, यह मर्जी न हमारी है और न तुम्हारी। माँ की बातों पर ध्यान नहीं देना। " सुमन का चेहरा आंसूओं से तर हो चला था। बड़े गर्व से अपने पति को देखती रह गई थी। 


        आज भी याद है सुमन को उसका पाँचवा महीना चल रहा था। घर में सबको लगता था कि वह कभी बेटे की माँ नहीं बन सकती। अब चौथी बेटी आने वाली है इस ख्याल से सभी उसे हीन नजरों से देखते थे। दोनों देवरनियां स्वयं पर इतराती थीं  क्यों नहीं, वे बेटों की माँ जो थीं ! वाह! री स्त्री, कभी यह सोंचने की कोशिश नहीं करती कि जिस दिन उसकी माँ ने उसे जना होगा तो वह भी उनकी इन्हीं उपालम्भों का कारण बनी होगी। कोई स्त्री कभी महसूस कर पाती वह व्यथा जब बेटी को जन्म देने पर एक स्त्री को सहनी पड़ती है, तब कोई स्त्री इस दशा से तो नहीं गुजरती ? कौन किसका दुश्मन है ? 


           उस दिन अनहोनी घटने वाली थी। सुमन प्रसव पूर्व उठी वेदना से कराह रही थी। तीनों अबोध बेटियाँ माँ को पीड़ा में देख घबराकर रो रही थीं । उतने बड़े घर का कोई झाँकने तक नहीं आया कि सुमन का दर्द कम हो सके। हाँ, दाई माँ के यहाँ जरूर खबर कर दी गई थी, वह आती ही होगी। 


        सुमन के लिए पल - पल भारी हो रहा था। सौर कक्ष में सुमन और दाई माँ के अलावा कोई भी नहीं था। सभी अपने - अपने कमरे में दुबके उसी चिर परिचित खबर की प्रतीक्षा कर रहे थे, जो अब तक इस स्थिति में मिलती आई थी। सुमन पर भी अनिश्चितता भरे बोझिल पल भारी हो रहे थे। कभी उसके मन में आता कि इसी बहाने वह सदा के लिए आँखें मूँद लेती पर दूसरे ही पल बेटियों का ख्याल आया तो वह सिहर उठी। फिर अदृश्य शक्ति से भर गई वह, परिस्थितियां चाहे जो हो वह टूटेगी नहीं। 


        रात्रि के कितने प्रहर बीतने के बाद सौर कक्ष से बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। सभी उत्सुकतावश दरवाजे पर पहुंच गए। प्रफुल्लित होती दाई माँ ने कहा  "ले बहूरिया, तेरे भी दिन फिर गए। तू बेटे की माँ बन गई।"  सहसा सुमन को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। बेटे को गोदी में लेती वह अपने अश्रुओं की धार को रोक नहीं पा रही थी। 


        सुमन ने स्वयं ही वह दास्तान अपनी गीली हो गई आँखों को पोंछते हुए सुनाई थी कनु को, तब शायद प्रयोजन यह था कि कनु भी बेटे की अहमियत को समझे। कनु पढ़ी - लिखी, आधुनिक किंतु अच्छे संस्कारों में पली - बढ़ी है। वह बैंक में जॉब कर रही थी जब उसकी शादी रोहण के साथ हुई। रोहण भी उसी बैंक में शाखा प्रबंधक के पद पर नया आया था। दोनों में मेल - जोल बढ़ा तो एक दूसरे को पसंद करने लगे। रोहण और कनु का विवाह घरवालों की मर्जी से हो गई।


             एक ही  ऑफिस होने के कारण दोनों साथ ही आते - जाते थे। रोहण की तीनों बहनों की शादी अच्छे घर में हुई थी। रोहण के पिताजी रिटायर्ड हो गए थे। सभी भाईयों में बंटवारा हो गया था, जब से कनु बहू बनकर आयी थी सबकी खुशियों में चार चाँद लग गए थे। वह सुन्दर, सुशील और समझदार थी। जब - जब रोहण की बहनें मायके आती थीं तो उनका घर और भी गुलजार हो जाता था। 


           समय को बीतते भला कहाँ देर लगती है। कनु जब पहली बार माँ बनने वाली थी तब सुमन ने खूब सँभाला था उसे। कनु मायके जाना चाह रही थी पर सुमन ने मना कर दिया। वह दादी बनने की खुशी में झूम उठी। कनु सास का यह रूप देख हैरान होती। उसे तो लगता जैसे वह काँच की गुड़िया हो। आने वाली संतान बेटा होगा या बेटी, कनु और रोहण को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था पर सुमन चाहती थी कि वह पहले पोते का ही मुख देखे। पूजा - पाठ, व्रत, नियम सब पोते की लालसा से करती थी। पर होता वही है जो होने वाला होता है। क्या इस बात से सुमन अनजान थी ?  किन्तु नहीं, समय के साथ सब धुंधला पर जाता है। सुमन भी अपनी कहानी भूल चुकी थी। 


       सभी चहक रहे थे। सुमन दादी तो बन गई थी पर पोती की। थोड़ी मायूसी के बाद वह संभल गई थी। नन्हीं जान का खूब ख्याल रखती। वह चहकती फिरती थी। कनु ने मातृत्व अवकाश ले रखा था, जब वह समाप्त हुआ तो उसे काम पर लौटना था। कनु ने कहा कि आया रख लेते हैं तो सुमन ने साफ मना कर दिया कि वह सब संभाल लेगी। नन्हीं कली उनकी जान बन गई थी।


       समय बीतता गया। सुमन के मन में पोते की लालसा फिर से जन्म लेने लगी। कनु और रोहण के लिए कली ही बेटा थी। सुमन के जिद अनुरोध को कनु और रोहण  अनदेखी नहीं कर सके उन्हें झुकना पड़ा, पर शर्त थी कि अबकी बेटा हो या बेटी उन्हें संतोष करना पड़ेगा। 


       कोई ऐसा दिन नहीं गुजरता कि सुमन ने पोते के लिए दुआ न मांगी हो, प्रसाद न चढ़ाया हो या कनु के माथे से भभूत न लगाया हो। कनु विरोध नहीं कर पाती थी। वह उनके प्यार और वात्सल्य के आगे हार सी जाती थी। कभी - कभी सुमन को लगता था कि कहीं वह अपनी कहानी अपनी बहू के साथ तो नहीं दुहरा रही है? किंतु यह विचार आते ही वह झटक देती। फिर भी वह एक अजीब तरह के अन्तरद्वंद में खुद को घिरी हुई पाती। कनु को डर लगता अगर क्या होगा जब माँ का दिल अगर टूट गया। अपने वश का कुछ तो है नहीं ! वह मन - ही - मन ईश्वर से प्रार्थना करती कि उसकी सास को सद्बुद्धि दें। उसको विश्वास होता था कि एक दिन सुमन भी यह मान लेगी कि कूल का मान सिर्फ बेटे से ही नहीं बल्कि बेटियों से भी होता है और वह माँ - बाप की अच्छी परवरिश भी कर सकती हैं। 


           सुमन कभी - कभी अपने ख्यालों में बहुत दूर निकल जाती, अपने उन्हीं दिनों में। वही पीड़ा, वही लांक्षण और अपमान को याद कर सिहर उठती थी। उसे झटका लगता कि कहीं जाने - अनजाने अपनी वही कहानी कनु के साथ तो नहीं दोहरा रही है ! समय के साथ स्वरूप बदल गया है पर मायने वही हैं। वह पसीने से तरबतर हो उठी थी। वह क्यों इतना मन्नतें माँगती है कि कनु बेटा जने। क्या यह सब स्वयं उसके हाथ में था ? फिर... कनु के लिए वही दोहराव.... वही सब.... फिर से... पुनरावृत्ति ..... पुनरावृत्ति... नहीं.....! 


          वह ग्लानि से भर उठी थी। वाह! वाह! री स्त्री! कब तक तुम अपनी पीड़ा पीढ़ी - दर - पीढ़ी अग्रसर कर तुष्ट होती रहेगी ?  जब तुम स्वयं अपने स्त्रीत्व का मान नहीं कर सकती तब भला समाज से क्यों उम्मीद रखी जाएगी ? विचारों के मंथन में स्वयं को मथती सुमन की तंद्रा टूटती है। 


      "माँ  ! आपको शारदा आंटी के यहाँ पूजा में शामिल होना था न?" पास बैठती कनु ने कहा। 


"नहीं बेटा ! नहीं जाना वहाँ।" 


"आपकी तबीयत तो ठीक है न ?" कनु चिंतित हो उठी। 


"तबीयत ठीक है, पर मंशा ठीक नहीं थी बेटा !"


     कनु ने सवालिया नजर से देखा तो बड़े प्यार से उसे गले लगाते हुए बोलीं " अब किसी सुमन की कहानी की पुनरावृत्ति नहीं होगी बेटा, चलो कली के साथ हम शाम को पार्क में चलते हैं, वह खुश हो जाएगी। " 


    कनु खुशी से झूम उठी। उसका विश्वास जीत जो गया था। 


           


         डॉ उषा किरण


   पूर्वी चंपारण, बिहार


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